Buddha purnima: बुद्ध का विवेक: गिरीश्वर मिश्र
Buddha purnima: गहन विश्लेषण से भगवान बुद्ध को मनुष्य में नाम (मानसिक) और रूप (भौतिक) ये दो तत्व दिखे . उन्होंने इनकी विशेषताओं की भी पहचान की और अंतत : आत्म की परतों को उघाड़ दिया. इन्द्रियों और उनके विषयों के संपर्क से नाम-रूप बनता है जिससे चैतन्य की दशा बनती है.
Buddha purnima: बौद्ध चिंतन ‘तथता’ यानी चींजें जैसी हैं उनको ले कर आगे बढ़ता है और ‘होने’ ( अस्तित्व) की व्याख्या करता है . यह सब बिना किसी आत्मा या शाश्वत की अवधारणा के ही किया जाता है . जो है वह क्षणिक है क्योंकि सब कुछ आ जा रहा है . अनुभव में कुछ भी ऐसा नहीं है जो क्षण भर भी ज्यों का त्यों टिका रहे. जीवन तरंगों का निरंतर चलने वाला पारावार या संसार है. क्षणिक अस्तित्व या बदलाव की निरंतरता ही सत्य है. वस्तुतः बौद्ध चिंतन आत्मा के नकार , वस्तुओं की अनित्यता और दुःख की गहनता ( सर्वं दु:खं ! ) के विचारों पर टिका हुआ है. निर्वाण का विचार भी तैलरहित दीप शिखा के बुझने जैसा ही है. बौद्ध विचार में मनुष्य या सभी प्राणी किसी एक कारण की उपज नहीं हैं बल्कि दो या अधिक कारणों की रचना माने जाते हैं हैं. रचा जाना या होना काल के आयाम पर अनेक विन्दुओं पर घटित होता है.
वस्तुत: परस्पर निर्भर कारणों की एक श्रृंखला काम करती है. कार्य कारण में नियमबद्धता इसलिए है कि जीवन चक्र सदा गतिमान रहता है . पहले क्या है ( या कारण क्या है) यह कहना संभव नहीं है . वैज्ञानिक सोच में अनंत अतीत से अनंत भविष्य की और उन्मुख सीधी रेखा में काल को मानता है ( करता है हाकिंस की पुस्तक का नाम है ऐरो आफ टाइम! ) जब कि बुद्ध विचार एक चक्र की अवधारणा प्रस्तुत जिसका आदि और अंत नहीं है . काल सापेक्षिक है.
जीवन चक्र में प्रौढ़ व्यक्ति वर्त्तमान में एक तरह के आत्म संभव का आकार लेता है. उसकी इच्छा या कामना से आत्म-रचना शुरू होती है . वास्तु का प्रत्यक्ष कर व्यक्ति दुःख, सुख, पीड़ा या तटस्थ मनो भाव महसूस करता है. सुख की अनुभूति होने पर व्यक्ति उस वास्तु पर अधिकार ज़माना चाहता है. इससे चाह पैदा होती है जिससे राग या लगाव उपजता है. फिर आदमी उसे अपने कब्जे में रखना चाहता है और अंतत: रचना होती है. आम का फल पकता है तो अन्दर गुठली भी तैयार होती है . वह एक नए वृक्ष को तैयार करने के लिए प्रस्तुत होती है. कारण और परिणाम दोनों मिश्रित हैं. जीवित प्राणी अपने कर्मों से अपनी प्रकृति का निर्माण करता है. उसके अतिरिक्त कोई सर्व शक्तिमान नहीं की अवधारणा नहीं है.
जिस आत्म तत्व के एकत्व या बहुत्व को लेकर बहसें होती र ही हैं उससे मुक्त हो कर बुद्ध सत्य अर्थात जो है या तथ्य की बात करते हैं. तथागत बुद्ध पूरी तरह जीवन शैली पर केन्द्रित रहे. अतियों को छोड़ मध्यम मार्ग को अपनाते हुए उन्होंने ब्रह्म या शरीर की सत्ता की अतियों को त्याग दिया. आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों में आत्म ही आरम्भ और अंत करते हैं. बुद्ध ने शांत चित्त से विचार और ज्ञान की साधना से वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति , दुःख की प्रकृति और कारणों को समझा. वह कर्मों के परिणाम के एकत्र होने को मानते हैं . उनके मत में घटनाओं के कारण होते हैं और उनका अन्त भी होता है. संसार यानी जन्म मृत्यु का बंधन जो दुःख भरा है उससे छुटकारा पाना उनका उद्देश्य था. पर उनकी साहसी सोच सबसे अलग थी.
गहन विश्लेषण से भगवान बुद्ध को मनुष्य में नाम (मानसिक) और रूप (भौतिक) ये दो तत्व दिखे . उन्होंने इनकी विशेषताओं की भी पहचान की और अंतत : आत्म की परतों को उघाड़ दिया. इन्द्रियों और उनके विषयों के संपर्क से नाम-रूप बनता है जिससे चैतन्य की दशा बनती है. चेतना एक क्रिया है , जो रहती नहीं है, कुछ होने के लिए पैदा होती या घटित होती है. नाम रूप और चेतना का क्रम निरंतर चलता रहता है. अपने विश्लेषण के आधार पर बुद्ध ने व्यक्तिव और बाह्य जगत के तत्वों की पहचान की जिन्हने धम्म कहा जिसक्का आशय अस्तित्व के अवयव है. इस विश्लेषण के पीछे एक नैतिक दृष्टि काम कर रही थी.
स्मरणीय है कि उपर्युक्त दृष्टि सांख्य , उपनिषद् और जैन विचारधाराओं के विपरीत थी. अनात्त की बौद्ध विचारधारा में अक्सर आत्मा के अभाव की बात की जाती है किन्तु सही अर्थों में एक स्थायी चेतन अहं को नकारा गया है . यह अंतिम सत्य नहीं है. यह परस्परसम्बद्ध अनेक तत्वों का नाम है. बुद्ध आत्मा को अंतिम सत्य नहीं मानते. व्यक्ति है यह इन्द्रियानुभाविक ( इम्पीरिकल ) सत्य है , पर है यह जुड़े तथ्यों की एक लड़ी . परन्तु कोई अपरिवर्तनशील स्थायी व्यक्ति की सत्ता नहीं है. व्यक्तित्व एक प्रक्रिया है , क्षणिक सत्य है न कि कोई स्थिर वस्तु. इसके अवयव तत्वों में कुछ प्रमुख , कुछ प्रच्छन्न होते हैं. इन तत्वों में समाधि या एकाग्रता की शक्ति और प्रज्ञा या सूझ मुख्य हैं और यदि ये तीव्र हैं तो नैतिकता होगी. सामान्यत: लोगों में अविद्या या अज्ञान ही रहता है .
इस जगत में विद्यमान विच्छिन्न तत्वों और अस्थिरता के बीच स्थायी भौतिक यथार्थ की प्रतीति एक भ्रम है . इसे समझाने के लिए प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया जिसके अनुसार देश काल में संपृक्त न होने पर भी एक तरह का सम्बन्ध वस्तुओं में हो सकता है . वस्तुओं की अभिव्यक्ति के कुछ निश्चित नियम होते हैं. हर तत्व अपनी उत्पत्ति के लिए किसी दूसरे तत्व पर निर्भर होता है. ‘ एक अस्तित्व दूसरे पर निर्भर है’ इस सिद्धांत के अनुसार ‘यदि ऐसा है तो यह होता है’ यह सूत्र काम करता है ( अस्मिन सति , इदं भवति !) . यहाँ किसी तरह के कारण- परिणाम की बात नहीं है , सिर्फ प्रकार्यात्मक पारस्परिक निर्भरता ही मौजूद है.
अनात्त का विचार व्यक्ति में दायित्व का भाव ले आता है. कल्याणकारी से मित्र भाव हो तो दुःख का निवारण संभव है. वस्तुओं के स्वरूप पर अस्थायित्व, दुःख और अनात्त की दृष्टि से विचार आँख खोलने वाला है. सत्य की ओर यात्रा पर चलने में शील , समाधि और प्रज्ञा के अनुरूप रहने से शरीर और मन को अनुशासित करना सरल हो जाता है. शील से दोषों से मुक्ति मिलती है. समाधि से विचारों की स्थिरता होती है , मन का संतुलन ज्ञान से आता है . अभ्यास से प्रज्ञा का उदय होता है . बौद्ध चिंतन मन के परिष्कार में ही कल्याण की संभावना देखता है : मलिन मन से बोलने और कार्य करने से दुःख ही होते हैं और अच्छे मन से बोलने या कार्य करने से सुख उपजता है.
यदि कोई वैर रखता है तो वैर से उसका समाधान नहीं होगा , अवैर अपनाना पड़ेगा . संतोष और संयम के अभ्यास से मन में राग नहीं पैदा होगा. अच्छे आचरण का व्यापक प्रभाव पड़ता है. ‘धम्म पद’ में बड़े ही सुंदर ढंग से बुद्ध विचार के अनुगमन की शर्तों का उल्लेख है : जो वाणी की रक्षा करता है , जो शरीर से पाप -कर्म नहीं करता है ; जो इन तीन कर्मेन्द्रियों को शुद्ध रखता है वही बुद्ध के बतलाए धर्म का सेवन कर सकता है . बुद्ध विचार प्रक्रिया जहां सूक्ष्म स्तर पर संसार की अनित्यता को बताती है वहीं आचरण से परिष्कार का आलोक भी देती है.
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