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Book of Santosh Srivastava: कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया: संतोष श्रीवास्तव

ekta vyas
प्रेषिका: एकता व्यास, गांधीधाम, गुजरात


Book of Santosh Srivastava: इंस्टेंट मैगी, इंस्टाग्राम और ओटीटी के इस जमाने में कोई लेखक भला सालों तक कैसे एक ही विषय पर काम कर सकता है? चाहे विषय कितना भी रोचक क्यों न हो। पर ऐसा होता है जनाब इस पाँच मिनट्स नूडल्स के जमाने में भी एक लेखिका ने अपने जीवन के 9 साल दिए हैं एक ही किताब को और वो भी हिंदी में यह जानते हुए भी कि आजकल का समय बहुत अनुकूल समय तो बिल्कुल भी नहीं है हिंदी लिखने और पढ़ने वालों के लिये। इस पर भी यह एक पूरा का पूरा हिंदी उपन्यास। अब मैं बात करती हूँ इस किताब की कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया जिसकी लेखिका हैं सुश्री संतोष श्रीवास्तव जी, सबसे पहले मैं संतोष जी से एक सवाल पूछना चाहती हूँ कि 9 सालों में तो पूरी की पूरी जेनरेशन ही निकल जाती है, विचार बदल जाते हैं, मौसम बदल जाता है। और तो और किसी शहर की जलवायु तक भी बदल जाती है। 9 सालों में माँ और बच्चे के विचारों में जमीन आसमान का परिवर्तन आ जाता है। तब आप कैसे? इतने सालों तक एक ही विचार, एक ही विषय को लिए समझती रही और लिखती रही जिसमें प्रेम हैं तो ज्ञान भी है, जिसमें रहस्य है तो कविता भी है जिसमें प्रादेशिक भाषा है तो बोली और कहावतें भी हैं, जिसमें माँ की ममता है तो औरत का सवाल भी है, ममता है तो त्याग भी है, जिसमें पा लेने और खो देने के बीच का संसार भी है। कैसे आप एक शिशु की तरह इस पुस्तक को संवारती रही। संभवत आप खुद भी इन सब आयामों को जीती होंगी, इसलिए इतने लंबे समय तक एक ही बगीचे को सजाती, संवारती रही। और अंत में बाग़ीचे का सबसे उन्नत, मीठा और खूबसूरत फल किताब की शक्ल में हमारे हाथों में रख दिया कि पढो और विचरण करो, रहस्यमय दुनिया में गोता लगाओ इस रहस्यमय संसार मैं और रहस्य की गहराइयों में जाकर अपने हिस्से का मोती ढूंढ लाओ।

तो जब मैं गोता लगा रही थी, इस रहस्यमय समन्दर में यानी कि किताब को बस हाथ में लिया ही था कि मेरे अंदर एक अजीब सी जल्दबाजी ने जन्म ले लिया कि कब इस किताब को खोलूं और पूरा का पूरा पढ़ लूं।

जल्द से जल्द इस रहस्य को समझ लूँ।पर यह कैसे संभव है कि इस किताब को लिखने में सालों साल लगे और इसको जल्दबाजी में पढ़ लें, नहीं पढ़ सकते। क्यों? क्योंकि जल्दबाजी के साथ मेरे मन में उत्पन्न हो जाता है एक ठहराव, एक गहरा भाव जो किताब को साधारण किताब न मानते हुए एक ग्रंथ मान रहा था, जिसे चिंतन और मनन के साथ पढ़ा जाना जरूरी था। पढ़ते वक्त किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो यह भी बहुत जरूरी था। सो कुछ दिनों तक किताब को सिर्फ हाथों में लेकर उल्टा पलटा और सूंघा। यकीन जानिए ये किताब की महक है जो किसी कीड़े को किताब के अंदर अपना घर बनाने पर मजबूर कर देती है। वरना कीड़ा थोड़े ही लिखना पढ़ना जानता है, बस वो तो इस गंध से खिंचे चले आते है और अपनी दुनिया किताब के भीतर बसा लेते है। यह और बात है कि किताब न पढ़ पाने और समझ न पाने के अभाव में शायद किताब खाकर ही आत्मसात करना चाहता है।

खैर, कुछ दिनों तक सिर्फ किताब को अपने हाथों से सहलाकर हमने आखिरकार उस दिन किताब का पहला पन्ना खोला। जब पूरा गुजरात दहशत के साए में जी रहा था। दहशत एक राक्षसी तूफान की जो बहुत ही तेज गति से कच्छ की तरफ भाग रहा था। ऐसा लगता था कि कहीं ये राक्षस पूरा का पूरा निगल ही न जाए कच्छ की इस पावन धरती को। पर ये क्या किताब का पहला पन्ना ही मेरे लिए तो तूफान से कम न था। कैसा संजोग था मेरा शहर एक तूफ़ान का सामना कर रहा था। मन में एक तूफान उठ रहा है और किताब की शुरुआत भी तूफानी थी यानी की किताब सीधी की सीधी ही शुरू हो जाती थी। कोई अन्य लेखक के प्रवचन के बिना ही।

बस द्वार खुलते गए। और ऐसे खुले कि एक दरवाजे में प्रवेश करते ही लगा रोमांच, कविता, ज्ञान और प्रकृति दर्शन की विविधताओं को छूती हुई कोई फीचर फ़िल्म देख रहे हैं। एक एक दृश्य बहुत साफ और स्पष्ट था और जब लेखिका कहती हैं” कि चारों ओर बर्फीली तेज हवाएं ………. ““तो यकीन मानिए मैंने कच्छ की भर गर्मी में अपने चारों ओर इन बर्फीली तेज हवाओं को महसूस किया था। और मेरे कानों ने सुना वो संगीत जो बर्फीली हवाओं से पहाड़ों पर उत्पन्न होता है, इस संगीत के बीच एक आवाज़ मेरे कानों में बहुत ही मध्यम से फुसफुसाकर बोली अभी क्या हुआ ये तो बस शुरुआत है।

कहानी की शुरुआत होती है एवरेस्ट पर विजय पताका फहरा कर लौट रहे पर्वतारोहियों के दल और कहानी के नायक नरोत्तमगिरी की मुलाकात से। मुलाकात के शुरू में नरोत्तम को अपने अतीत से फिर साक्षात्कार करना पड़ता है। और सब कुछ याद आने पर भी नरोत्तम बस यही कहता है। “यह जीवन भूलभुलैया है। कितना भी चाहो पर इसके उलझाव से बच नहीं सकते।” और इसी अध्याय में हिप्पी कल्चर की झांकी भी देखने को मिलती है। साथ ही मंगल की कामना का भी पता चलता है कि उसके लिए खगोलशास्त्री बनने का सपना कितना महत्वपूर्ण है। पर क्या वह जानता है कि उसके भविष्य में तो न सिर्फ गृह नक्षत्र की दिशा और दशा पढ़ना लिखा है, बल्कि मन के भी खगोल विज्ञान से पार पाने के लिए ही उसका इस धरती पर जन्म हुआ है। इसी भाग में नरोत्तम के जीवन के दोहरे दुख का भी पता मिलता है, जहाँ उसकी एकतरफा प्रेम की संगिनी उसके ही घर में उसकी भाभी के अवतार में प्रकट हो जाती है। और फिर दीपा का खुला आमंत्रण नरोत्तम के मन पर ऐसी मार मारता है कि वह हमेशा के लिए घर छोड़कर जाने निर्णय कर लेता है।

“अंतरिक्ष में जाने कितने ब्लैक होल है।”(पेज नंबर 22) सही कहा है लेखिका ने अभी तक वैग्यानिकों को ऐसी कोई मशीन नहीं मिली है जिससे ब्लैक होल दिखाई देते हों। काश के होती ।कहानी आगे बढ़ती रहती है। कहीं कहीं पर किताब बहुत ही सूचनात्मक हो जाती है और कहीं कहीं पर युवावस्था की मजबूरियों का वर्णन करती चलती है। कहीं कहीं पर हिप्पियों के जीवन को भी सुनाना नहीं भूलती है।एक जगह तो नरोत्तम कहता है “तुम्हारे मन में कौतुहल बहुत है, अच्छा है। कौतुहल बुद्धि का विकास करता है।

“तो क्या हर ज्ञान का प्रारंभ कौतुहल से ही होता है? ऐसा प्रश्न आना मेरे जैसे नौसिखिया पाठकों के मन में लाजमी है। वैसे भी इसी प्रसंग में नरोत्तम नागा साधुओं के सैनिक होने की भी कहानी सुनाता है। जो पिछले दिनों अलग अलग रूपों में इंटरनेट पर वायरल हो रही थी।”
सुबह धूप निकलने पर वहीं शिप्रा में स्नान कर सीधा मेले में लगे स्टाल का जलेबी कचौड़ी का कलेवा करने आ गया।”(पेज नंबर 27) लोकभाषा का उत्तम दर्शन है। और भी कई जगह इस तरह के प्रयोग लेखिका ने बखूबी किए हैं। मेरे अंदर एक असमंजस ने जन्म ले लिया है। जब मैंने पेज नंबर 27 पर पढ़ा “कही से चोट खाए हुए लगते हो। चलो तुम्हें दुनिया दिखाते हैं।”

यहाँ नागा साधु मंगल को चिलम देता है तो क्या चिलम या किसी अन्य तरह का नशा अपने दुखों से पार पाने का एक माध्यम हो सकता है? कही कही ऐसा लगा जैसे नशा या चिलम को सही साबित करने का प्रयास किया किया जा रहा है नागा साधुओं के द्वारा ये मेरा व्यक्तिगत ख्याल है न की किसी भी प्रकार की किसी भी पंथ की आलोचना है । बस एक पाठक की हैसियत से मन में उपजा एक प्रश्न है। मंगल अर्जुन सिपाही की लुकाछिपी देखकर बचपन में देखे गए कार्टून टॉम एंड जेरी की याद आ गयी पता नहीं क्यों प्रत्यक्ष में तो ये दोनों परिस्थितियां बहुत भिन्न है, फिर भी।

“मंदिरों के दर्शन करने जाएंगे ना उज्जैन तो मंदिरों का शहर है चावल चढ़ाते चढ़ाते बोरा भर चावल दिन भर में खत्म हो जाता है।”( पेज नंबर। 34) यह वाक्य पढ़ कर मन कुछ वितृष्णा से भर गया और याद आया एक किस्सा जब मैं टाटा मोटर्स में नौकरी कर रही थी। नौकरी की नई , हम बहुत खुश थे इतनी अच्छी नौकरी और इतनी अच्छी तनख्वाह जो मिल रही थी। जीवन में और क्या चाहिए इसी खुशी में हमे एक ट्रेनिंग प्रोग्राम में जाने का मौका मिला जो टाटा मोटर्स के ही द्वारा आयोजित की गई थी।

ट्रेनिंग की शुरुआत में ही हमें सारे टाटा मोटर्स के प्रॉडक्ट के बारे में बोलने को कहा गया जैसे कि 407 ट्रक अब भला ट्रक के बारे में कितना ही अच्छा बोलो आखिर कार वह ट्रक है और ट्रक ही रहेगा ।कोई सुदर्शन प्रेमी तो नहीं बन जायेगा न पर जो व्यक्ति हमें ट्रेनिंग दे रहे थे, उन्होंने बहुत ही धीमे से समझाया कि जब तक हम अपने प्रॉडक्ट से खुद कन्विंस नहीं होंगे, तब तक हम किसी और को क्या कन्विंस कर पाएंगे? पहले आप अपने 407 से प्रेम करो, फिर ही आप किसी और को समझा सकोगे। तो क्या यह मल्टी नैश्नल कंपनी का कानून हमारे जीवन पर लागू नहीं हो सकता है? राजा विक्रमादित्य की नगरी की बस इतनी ही पहचान बची है कि वहाँ पर मंदिर है और दिन भर चावल का एक पूरा बोरा खर्चा करवा देते है। क्यों ना हम ऐसे परिचय करें कि यह महान राजा विक्रमादित्य का नगर है जिसे हम देवालयों का शहर भी कहते हैं एक एक मंदिर का अपना इतिहास और अपनी अपनी परंपरा है ।

एक एक परंपरा के दर्शन करने के लिए एक जीवन भी कम पड़ जायेगा आपको श्रीमान। दिन भर उज्जैन घूमा और फिर ट्रेन पकड़ ली हरिद्वार की। क लेखिका कहती रही और हम सांस रोके सुनते रहे इस अहसास से कि कहीं हमारी उखड़ती बैठती सी साँसों का कलरव कहानी कहने में व्यवधान न बन जाए ।सीधी सड़क पर चलते कभी हम पहाड़ों पर चल पड़ते और फिर कभी सपाट सड़क पर चलने लगते ।बेहोश बस सुनते चलते के अचानक हमारे कदमों के नीचे से जमीन ही छीन ली गई, कहानी अब कविता जो बन गई थी।
चाँद नीचे आओ न
इस धरती के स्वर्ग पे
कुछ देर रुक जाओ ना
मैं जानती हूँ
तुम नहीं आओगे
अनुशासित जो हो तुम बहुत
पेज नंबर 68 का ये पूरा का पूरा पैरा किसी रूमानी कविता सा लगता है और फिर फिर मन कैथरीन हो जाना चाहता है तन न जाने क्यों ढूंढता है फिर वही रात का अंतिम पहर जब चाँद मेरे भी बगल में हो चांदनी मुझ को सहलाए और जब मैं अपना हाथ बढ़ाऊं उसको छूने को तो वह बादलों में लुढ़क जाए

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मैं मुस्कुराऊ
और भोर के तारे सी चमक जाऊं
पूरी ही कहानी में बार बार खिचड़ी के बघार या तैयार खिचड़ी का जिक्र आता हैं। यकीन मानिए मैंने कई बार कहानी को बीच में यूं ही छोड़ कर रसोई घर की ओर मुख किया है और देसी घी में छोकी हुई हरी मूंग दाल की खिचड़ी का छककर आनंद लिया ।मेरी 18 वर्षीय बिटिया ने अपने पापा से शिकायत की जो मैंने अपने उन्हीं कानों से सुनी है। कहती है पापा मम्मी को प्यार हो गया है मुस्कुराते मुस्कुराते रसोई घर में जाती है, खिचड़ी बनाती है और फिर आप ही खा लेती है और वापस किताब पढ़ने लगती है ।आकुछ तो खिचड़ी में काला काला सा है, सचमुच ही में प्रेम में थी इस पुस्तक के प्रेम में या कैथरीन के प्रेम में या नरोत्तम के प्रेम में नहीं जानती।

सौतेली माँ की कहानी कमोबेश सभी जगह एक सी है। सौतेली माँ का व्यवहार कभी राम बना देता है और कभी डॉक्टर या इंजीनियर और कभी कभी तो अघोरी अष्टकौशल। अघोरी जीवन और संसार से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण जानकारीयों के साथ साथ कहानी आगे बढ़ती रहती है और पहुंचती है वहाँ जहाँ जानकारी मिलती है कि “अघोरी साधु दिल से किसी के प्रति नाराजगी नहीं रख सकते इनका मानना है कि जो लोग नफरत करते हैं, वे ध्यान नहीं कर सकते।“ (पेज नंबर 83) पर उन लोगों का क्या जिन्हें जीवन के आरंभ से ही नकारात्मकता ही मिले हैं जिन्होंने जीवन में कुछ भी सकारात्मकता का अनुभव ही ना किया हो, क्या वे ध्यान की पाठशाला के लिए उचित विद्यार्थी नहीं है? या वे ध्यान की विद्या के बारे में सुन तो सकते हैं पर अनुभव नहीं कर सकते या उनके लिए कोई विशेष ध्यान विधि हो सकती है जिसमें डूबकर जीवन की नकारात्मकता का सामना कर सके और उसे जीत सके।

कहानी एक चिर परिचित मोड पर आ पहुंचती है वहीं सत्ता की लड़ाई, वही जमीन की लड़ाई जिसमें किसी एक प्रजाति को अपनी जमीन छोड़ के जाना होता है, क्योंकि किसी अन्य जीव को वह जमीन चाहिए एक और घुमंतू जनजाति ने अपनी जमीन, अपना खानपान, अपनी हवा अपना सबकुछ छोड़ दिया। बस अपनी सांसें कायम रखने के लिए और अपनी आने वाली नस्लों को बचाने के लिए। फिर एक विस्थापन का खेल खेला गया और इस बार इस कहानी के मुख्य पात्र थे मौरी आदिवासी।
वैसे तो यह बात किताब में अघोरी पंथ के लिए कही गयी हैं किन्तु मेरा मानना है कि यह बात जीवन के हर क्षेत्र मे हर विद्यार्थी पर लागू होती है कि “वह हर स्टेशन पे उतरे या अंतिम लक्ष्य अघोर पंथ पर पहुँचकर ही अपनी यात्रा समाप्त करें।“
आप चाहे तो एवरेस्ट तक सीधा बिना कहीं रुके चढ़ते चले जाएं और अपनी मंजिल पर पहुँचकर ही दम लें। उस अंतिम लक्ष्य के प्राकृतिक सौंदर्य को निहार लें और उसका आनंद लें।

वहीं दूसरी तरफ यह भी संभव है कि रास्ते में आने वाले सभी या कुछ पड़ाव पर आप रुकते, रुकते जाये और हर एक स्थान की प्राकृतिक छटा को मन में। बस आते हुए चले जाए।
“कैथरीन को प्रवीण का सारा वजूद आसमान सा लगा, जिसमें समाते हुए वह खुद को तमाम सितारों आकाश कम गांव से ऊपर पा रही थी “( पेज नंबर 107)
यह बात मेरी समझ से ऊपर है कि कैथरीन जैसी परिपक्व और मजबूत स्त्री को प्रवीण जैसे बातें छुपाने वाले व्यक्तित्व के इंसान पर उसकी ऊपर इतनी अधिक निर्भरता क्या साबित करना चाहती है आज कल की स्त्रियों को इस घटना से क्या समझना चाहिए मैं कैथरीन के व्यक्तित्व के इस पहलू से पूरी पुस्तक पढ़ने के दौरान अनजान ही रही या मेरी समझ ही इस रिश्ते की बुनियाद को समझने में असमर्थ रही होगी शायद मैं शुरू से ही कैथरीन और प्रवीण के रिश्ते को समझने में अपने आप को असमर्थ पा रही थी। (पेज नंबर 116) पर मैंने पढ़ा “तुम्हारे किसी बात को इनकार करने की मुझमें हिम्मत नहीं है, मैंने तो बस प्यार किया है तुम्हें” कैथरीन को एक नई लत लग गई थी सिगरेट की “अपने अतीत को धुएं के हवाले कर दिया।”

क्या ये संभव है कि हम अतीत को किसी के भी हवाले कर सकते हैं? चाहे फिर वह धुआं ही क्यों ना हो
कहानी अपने वेग से आगे बढ़ते हुए एक स्थान पर आकर ठहर सी जाती है जहाँ पर माता सती के 52 शक्तिपीठों का वर्णन बहुत ही सृजनात्मकता के साथ किया गया है साथ ही कुछ शक्तिपीठों का भारत भूमि से बाहर होने का भी दर्द दिखाई पड़ता है।
“कभी यह देश भी भारत के थे देवी लेकिन सियासत की जंग में बंटवारा हो गया।”
“बहुत बुरा हुआ। सत्ता की आंच में जलती है प्रजा” (पेज नंबर 123)
पिछले दिनों एक नामी गिरामी नेता के भाषण में भी शक्तिपीठ हिंगलाज माता का वर्णन था जो क्लिप काफी वायरल हुई थी और खासकर युवाओं द्वारा सराही गयी थी।

सभी शक्तिपीठ की जानकारी के बाद कैथरीन और नरोत्तमगिरी के अलग होने का वक्त आ ही गया तब कैथरीन कहती है।
“नरोत्तमगिरी हम शीघ्र मिलेंगे दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं”
कहते हुए कैथरीन ने नरोत्तमगिरी के दोनों हाथ अपने माथे से लगा लिए थोड़ी देर को मानो सन्नाटा पसर गया और सृष्टि भी थम सी गई। यही वह क्षण था जहाँ नरोत्तम के नागा साधु होते हुए भी कहीं ना कहीं संसार से जुड़े होने का एहसास देता है दूसरी तरफ ये एहसास कहीं गहरे मन में समा जाता है कि आखिरकार तो सब कुछ प्रेम ही है चाहे वह नागा साधु के लिए हो या किसी सांसारिक मनुष्य का ही क्यों न हो।

कहानी आगे बढ़ के पहुंचती है पेज नंबर 137 पर जहाँ गुरूजी नरोत्तम से कहते हैं इतने वर्षों के तप ने तुम्हें निखार दिया है तप से जो ऊर्जा तुम्हें मिली है हम उसका उपयोग करना चाहते हैं।
सच ही तो है सोने को भी निखरने के लिए तपना पड़ता है तभी वह पारस बनता है और पारस का उपयोग कुछ साधारण तो हो ही नहीं सकता। धन्य है वो गुरु जो पहले मार्ग दिखाया फिर उस मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे फिर उस मार्ग की अडिग। रहना सिखाएं आई आई। और फिर उस तपस्या से प्राप्त फल का सदुपयोग भी करे यही पुरातन भारतीय संस्कृति है यही गुरु शिष्य परंपरा भी है।

भारतीय परंपरा और प्रेम का दर्शन करते हुए मैं आगे बढ़ रही थी पुस्तक मुझे कहीं कहीं पर आकर ऐसी लगती जैसे मैं एक लंबी तीर्थ यात्रा पर हूँ जिसमें ज्ञान है, इतिहास है, अध्यात्म है और बस प्रेम है या प्रेम का दर्शन है।
प्रेम ही था, जिसमें नरोत्तम कैथरीन से कहता है। “प्रसाद ग्रहण करके जाओ कैथरीन।” न देवी, न माता, सिर्फ और सिर्फ कैथरीन। एक जगह फिर नरोत्तमगिरी आद्या से कहता हैं। ”प्यार मुश्किल से मिलता है आद्या उसका सत्कार करो।”

(पेज नंबर 163)
कहानी में अचानक ही एक उत्तेजना भर जाती हैं जब एक विदेशी लड़की नागा साधुओं की तर्ज पर खुद वस्त्र विहीन करके घाट पर दौड़ पड़ती है। और यह घटना बहुत से लोगों के मनों में खलबली मचा देती है। कई सवाल खड़े कर देती है, जिनमे में से सबसे महत्वपूर्ण है नरोत्तम का प्रश्न जो कहता है।

“फिर भी मुझे लगता है। जैसे मैं अधूरा हूँ, पूर्ण पुरुष नहीं।” (पेज नंबर 166 )
सवाल जवाबों के बीच अचानक कैथरीन नरोत्तम से सवाल करती है।
“लेकिन नरोत्तम एक सरस्वती के चरित्र से मैंने महसूस किया है कि वह छली जाने के बावजूद हारी नहीं। दृढ़ता से उठी और विद्या की देवी बन गई ।शारीरिक शोषण का शिकार लड़कियों के सामने सरस्वती बहुत बड़ा उदाहरण है।”( पेज नंबर 173)
कैथरीन ने सरस्वती को एक नया स्वरूप दिया है साथ ही उस विषय को भी उठाया है जिस विषय पर भारतीय समाज चर्चा करने से कतराता है। प्रेम की कहानी आगे बढ़ रही है। अपनी ही गति और गरिमा के साथ एक जगह आकर कैथरीन प्रेम को परिभाषित करती है और कहती है।

” प्रेम तो जीवन और मनुष्यता का विवेकशील आधार है। क्रांति के बीज उसी में छुपे होते हैं। वहीं से अव्यवस्था और तानाशाही के विरोध को ताकत मिलती है। और प्रेम करने वाले अमर हो जाते हैं, दुनिया से चले जाते हैं और साहित्यकार उनकी प्रेमगाथा शब्दों में ढालते है।” (पेज नंबर 177)
सही कहा कैथरीन ने साहित्यकार प्रेम गाथा को शब्दों में ढालते है और लेखक कर भी क्या सकता है? सिवाय इसके कि समाज के हर अंश को अमर कर दें, चाहे वह प्रेम ही क्यों न हो। यही इसी पेज पर एक जगह रॉबर्ट प्रोफेसर से कहता है।
” उसने इतना स्वादिष्ट वेज कभी नहीं खाया। आपकी पसंद लाजवाब “है प्रोफेसर।”

उपरोक्त पंक्तियाँ मेरी व्यक्तिगत पसंदगी बन गए। अच्छा लगा लेखिका के द्वारा पुस्तक मैं भारतीय दर्शन और प्रेम की थाली को भारतीय शाकाहारी व्यंजनों के साथ परोसा जाना। भोजन की इसी श्रृंखला में जब आद्या कहती है।
“लेकिन मुझे आलू की टिक्की, मटर चाट, दहीबड़े और गोल गप्पे खाने है और फिर मटका कुल्फी।”(पेज नंबर 179)
ये पढ़ते वक्त कहानी तो लखनऊ में थी पर मेरा मन पहुँच गया था मेरे अपने जन्मस्थान जबलपुर (मध्यप्रदेश) संस्कारधानी की गलियों में जहाँ बचपन से इन स्वादों का बेइंतहा लुत्फ उठाने का मौका मिला था। खैर, कहानी आगे बढ़ती और एक बेचैनी सी मेरे मन में उत्पन्न करती है जो जब नरोत्तम कहता है।

“यूं लग रहा था जैसे किसी की परछाई मेरे साथ चल रही है। मेरे रुकते ही रुक जाती है और मुझे अपने घेरे में समेट लेती है। मेरी सांसें घुटने लगती है और मुझे लगता है जैसे मैं पाताल में धंसा चला जा रहा हूँ।”
यहाँ आकर बेचैनी एक प्रश्न में बदल जाती है क्या नागा साधु भी कभी विचलित होते होंगे? क्या कभी सांसारिकता उन्हें अपनी ओर खींचती होंगी ?

एक बार तो कैथरीन नरोत्तम से कह भी देती है।
“कोई तो एक सूत्र है जो तुम्हें पूरी तरह से संन्यासी होने से रोक रहा है।“( पेज नंबर 184)
कहीं कहीं कहानी में पात्र सभी वर्जनाओं को तोड़ते से लगते हैं और कहीं कहीं ऐसा लगता है जैसे पात्रो द्वारा सभी वर्जनाना को पूर्ण मन से अपना लिया गया है। न जाने क्यों मुझे कई बार नरोत्तम का चरित्र सांसारिक मोह की तरफ खींचता हुआ सा लगता है। एक बार तो निरोत्तम स्वयं कहता भी है
“कैथरीन का सौंदर्य आवाहन सा कर रहा है।”

कैथरीन से मिलकर नरोत्तम का मन बिखरा बिखरा सा है। कहीं कहीं तो ऐसा लगता है जैसे नरोत्तम अपने नागा साधु पद से विमुक्त होता जा रहा है या हो जाना चाहता है? वहीं दूसरी तरफ कैथरीन नागा साधु नहीं है। वह सामान्य व्यक्ति है उसने किसी भी प्रकार की दीक्षा नहीं ली है और वह भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी भी नहीं है। फिर भी वह अपने फैसलों पर अधिक अडिग है और वैसे भी कैथरीन के मन का विचलित होना मानवीय हैं किंतु नरोत्तम का विचलन स्वीकार योग्य नहीं है।

ध्यान और साधना के लिए नरोत्तम एक वर्ष तक कंदराओं में रहा खुद को परिष्कृत करने और मन को साधने के लिए इस दौरान वह मोबाइल बंद कर रख देता है, किंतु मन में आते विचारों को लगाम नहीं दे पाता था। बार बार पोटली की ओर देखना उसके कार्यों में व्यवधान बन रहा है। फिर भी उसका ध्यान पोटली और कैथरीन दोनों में ही है। यह बात प्रमाणित करती है कि नरोत्तम का मन संसार की ओर अभी भी भागता है संसार की ओर खिंचाव महसूस करते नरोत्तम के भाग्य में यह परीक्षा भी लिखी है कि दीपक का पुत्र उसके समक्ष विद्यार्थी के रूप में खड़ा हो जाए। इस सन्दर्भ में नरोत्तम कैथरीन के सामने खुल जाना चाहता है उसे लगता है कि अपने मन के द्वंद को कैथरीन के साथ साझा कर वह आसानी से दुर्गम रास्ते पार कर लेगा।
कहानी आगे बढ़ती है और महिला नागा साधुओं पर आकर ठहर जाती है। जहाँ पर एक जगह माता शैलजा कैथरीन से कहती है की “पांच 6 दिन हमारी यौनी को शिथिल करने के लिए हमें भूखा रखा जाता है, हमारी काम इच्छा उसी दौरान समाप्त हो जाती है।

(पेज नंबर 206)
यतो ह्यापि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः
इन्द्रियानि प्रमाथिनि हरन्ति प्रसभं मनः
मैंने सुना है इन्द्रियां इतनी मजबूत और अशांत होती है कि वे आत्म नियंत्रण का अभ्यास करने वाले व्यक्तियों के मन को बलपूर्वक छल सकती है। इन्द्रियां जंगली घोड़े के समान होती है वे उतावली और लापरवाह होती है उन्हें अनुशासित करना एक महत्वपूर्ण लड़ाई है जो साधकों को अपने शरीर के भीतर लड़नी पड़ती है। इसलिए आध्यात्मिक विकास की इच्छा रखने वालों को सावधानीपूर्वक भोगवादी इंद्रियों को वश मैं करने का प्रयास करना पड़ता है, अन्यथा उसमें सब से श्रेष्ठ योगियों को भी आध्यात्मिक साधना नष्ट करने और पटरी से उतारने की शक्ति है इसीलिए समझना कि भूखे रहने मात्र से अंकुश लग जायेगा, थोड़ा मुश्किल है। यह तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो कभी कभी आजीवन चलती रहती है।

कुछ प्रक्रियाएं जीवन पर्यन्त चलती रहती है और कुछ का इसी जीवन में समापन करना पड़ता है। जैसे कि कैथरीन की नागा साधुओं पर पुस्तक शुरू तो हो गई पर अब संपूर्णता की ओर है और इसी संपूर्णता की प्रक्रिया में कैथरीन नरोत्तम से कहती है।
“बस खत्म हुई समझो खत्म करने के लिए तुम्हारे पास आना होगा। किसी भी चीज़ का अंत बहुत सरल नहीं होता है पर वह भी तब जब पूरी तरह से उसमें जुड़े हुए हो।”( पेज नंबर 193)
वाकई किसी भी अध्ययन का अंत सरल नहीं होता। जैसे जैसे यह पुस्तक अपनी मोक्ष की तरफ बढ़ रही है। मेरे अंतस में एक प्रकाश की किरण फूट रही है। इस पुस्तक को पढ़ते वक्त न जाने कितने बार मैं कैथरीन बन नरोत्तम से सवाल जवाब करने लगी थी और कितने बार मैंने अपने आप को भोजशाला में महसूस किया था कितनी बार चाँद मेरे बगल में आ बैठा था। पर अब जब पुस्तक अपने अंत की तरफ बढ़ रही है तो लगता है काश कुछ देर और ठहर जाए यह कथा।

इस अंत की पाठशाला में कैथरीन प्रवीण से कहती है।
“इंसान को पता हो कि वह भूल रहा है संसार त्यागकर भी संसार अपनी ओर खींचें कहाँ तक रहेगा शरीर? चाहे साधु हो, तपस्वी हो, साधारण इंसान का शरीर इन्हीं पंचतत्वों से बना है न?” (पेज नंबर 213)
कहीं कहीं ऐसा लगता है जैसे भले ही कैथरीन ने जोग नहीं लिया है वह अभी भी संसार में रमी हुई है। वे अब भी संसारिक है, पर उसकी आत्मा कहीं न कहीं साधु हो गई है। वह प्रेम करती है और स्वीकार भी करती है। पर उसे प्रेम में पाने की लालसा नहीं रखती, उसका प्रमाण मिलता है।पेज नंबर 243 पर जब कैथरीन कहती है कि
” मैं तुम्हें पथ भ्रष्ट नहीं होने दूंगी नरोत्तम प्यार कीमत नहीं मांगता।”

और दूसरा प्रमाण तब मिलता है जब नरोत्तम कहता है “कभी ये नहीं कहा की तुम मेरे साथ आ जाओ, हमेशा यही कहा, काश मैं तुम्हारे साथ होती।”
कहानी मैं कैथरीन का प्रेम चित्रित करने के लिए काफी आगे जाना पड़ा। पर पीछे अभी बहुत कुछ बाकी है जैसे कि पेज नंबर 231 पर जानकारी।
“महंत गौरीशंकरदास के मुताबिक आज भी हरिद्वार में उस युद्ध में मारे गए नागाओं की समाधियां हैं। गुजरात में धौलूका धधूका विरमगाम और मेहसाणा जिले में आज भी समाधिया है।”
कहानी आगे बढ़कर कैथरीन की व्याकुलता में समा जाती है और उसे महसूस होता है कि वह स्वार्थी बन गई थी, सिर्फ अपने बारे में ही सोच रही थी। एक बार वह खुद से कहती भी है।
“यह कैसी बेचैनी? ईश्वर मुक्ति दो।”

नरोत्तम तो उसके जीवन का अभिन्न अंग था और अब वह उसकी आँखों सांसों से होता हुआ वियना की सड़कों पर भी नजर आने लगा है। एक ओर नरोत्तम कैथरीन की सांसों में समा गया है। वहीं दूसरी ओर उसकी खुद की सांसें उखड़ने लगीं अब नरोत्तम को लगने लगा था कि उसका अंतिम समय आ चुका है। लंबे बुखार के बाद आखिरकार एक दिन नरोत्तम को जाना ही पड़ा पर ये क्या? नरोत्तम के जाने के बाद कैथरीन ने कहना तो चाहा।
“नरोत्तम के आकाश का अभी अभी टूटा तारा। “
पर बस वह इतना ही कह पाई।
“जूना अखाड़े की नई सदस्य “
जो अपने प्रेम को संपूर्ण करेगी और पूर्ण करेगी नरोत्तम के अधूरे कामों को।
“जिसके प्रकाश धर्म को बरसों तक देखेगा ज़माना।”
इस सबके बावजूद उपन्यास का अंत दुखांत पे तो बिल्कुल भी नहीं है। किंतु सुखांत भी नहीं है, बस एक प्रेरणा है प्रेम करने वालों के लिए, क्योंकि मेरे लिए सबकुछ होते हुए भी यह उपन्यास एक प्रेम कथा ही अधिक है आखिरकार हम सबको प्रेम की ही तलाश है।
उपन्यास: कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया
लेखिका: सुश्री संतोष श्रीवास्तव
प्रेषिका: एकता व्यास (गांधीधाम )कच्छ गुजरात
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