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VCW Varanasi: वी सी डब्लू, वाराणसी में अन्तर्राष्ट्रीय कार्यशाला का छठवां दिन

VCW Varanasi: प्रवासी भारतीय साहित्यकार डॉ इला प्रसाद का प्रभाव शाली वक्तव्य; कला जोड़ती है जबकि विज्ञान में होता है विखंडन

रिपोर्टः डॉ राम शंकर सिंह
वाराणसी, 13 मार्च:
VCW Varanasi: वसंत महिला महाविद्यालय, जे. कृष्णमूर्ति फाउंडेशन भारत, राजघाट फोर्ट, वाराणसी के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित सात दिवसीय अंतरराष्ट्रीय वर्चुअल कार्यशाला के छठवें दिन मुख्य वक्ता के रूप में प्रसिद्ध कवयित्री एवं कथाकार डाॅ. इला प्रसाद अमेरिका से जुड़ीं । स्वागत वक्तव्य में प्रो.शशिकला त्रिपाठी (हिंदी-विभागाध्यक्ष एवं वरिष्ठ आलोचक) ने कहा- “रचनाशीलता परिवेश से भी आती है। जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि होती है, वहाँ के कुछ गुण बीज रूप में बच्चों के भीतर पड़ जाते हैं और जिनका विकास अनुकूलता में होता है।

प्रोफेसर त्रिपाठी ने आगे कहा कि इला प्रसाद की रचनाशीलता भी पारिवारिक संरचना की उपज है। हम चाहें तो इनकी रचनाओं को प्रवासी साहित्य की संज्ञा दे सकते हैं। प्रवासी,जन्मभूमि से स्वयं को अलग नहीं कर पाता। क्योंकि भूमि के साथ ही परंपरा, संस्कृति व सभ्यता भी उसकी आत्मा में घुले मिले होते हैं।इसलिए,विदेश में रहते हुए भी दो संस्कृतियों के संक्रमण से लगातार भारतीय मन जूझता है और अपनी रचनाशीलता के जरिए हिंदी को वैश्विक भाषा बनाने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

मुख्य वक्ता इला प्रसाद जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि.. “वैज्ञानिक सबसे अच्छा कलाकार होता है। अगर मैं विज्ञान के क्षेत्र में होकर साहित्य लेखन में सक्रिय हूँ तो यह अनूठी बात नहीं है। वैज्ञानिक किसी न किसी कला से अवश्य जुड़े हुए होते हैं। कला जोड़ती है और विज्ञान में विखंडन है। उन दोनों से जुड़ कर ही हम अपने व्यक्तित्व को संतुलित रख पाते हैं। अपने शहर या अपने जमीन से उखड़ने का जो दर्द होता है उसे तो हर प्रवासी महसूस करता है।

डॉ इला ने अपनी बातों को और स्पष्ट करते हुए कहा कि, प्रवासी का मतलब सिर्फ उनसे नहीं है जो भारत से बाहर जाकर बसे हैं। जब कोई गांव से शहर आता है या कस्बे से महानगर में जाता हैं तो भी वह प्रवासी कहलाता है। उन्होंने अपनी चर्चित कविता “अपना शहर” का पाठ भी किया जिसमें उन लोगों का दर्द है जो अपनी जन्मभूमि से कहीं और जाकर बस गए हैं।

प्रवासी कथाकार डॉ इला ने आगे कहा कि अमेरिका की तुलना में भारत में स्त्री और पुरुष को बराबर का अधिकार मिला हुआ है। अर्धनारीश्वर की अवधारणा भारत में ही रही है जिसका क्षरण आक्रांताओं के द्वारा होता रहा। वस्तुतः शोषक और शोषित की परिभाषा सशक्त और निर्बल के इर्द-गिर्द घूमती है। जहाँ पुरुष सबल है वहाँ स्त्री को दबाता है और जहाँ स्त्री सबल है वहाँ पुरुष का शोषण होता है।वैसे, दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं, कुछ अच्छाइयां पुरुषों में है तो कुछ विशेषताएं स्त्रियों में।

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आपने आगे कहा कि स्त्री का स्वभाव ही सृजनधर्मिता का है। वह जहाँ रहती है कुछ नया रचने की कोशिश करती है और उसका लेखन उसी रचनात्मकता का एक पहलू है। स्त्री की जिजीविषा पुरुष से ज्यादा गहरी है। उन्होंने स्त्री पर लिखी कविता ‘घास’ का पाठ भी किया जिसमें स्त्री की जिजीविषा संकेतित होती है। पुरुषों को मन के भावों की अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करने का दायित्व स्त्रियों को उठाना होगा। अभिव्यक्ति हमें और मजबूत बनाती है। उन्होंने पर्यावरण पर लिखी अपनी कविता “नए साल का पहला दिन” का पाठ किया।

उन्होंने बताया कि “जब मैं आरंभ में लिखती थी तो एक आवेग में लिखती थी लेकिन अब मुझे उस आवेग को संभालना आ गया है। जब तक मैं अपनी रचना को लेकर के पूरी तरह से आश्वस्त नहीं होती, तब तक उसे प्रकाशित नहीं कराती। रचनाकार, स्त्री हो या पुरुष उसकी जगह बराबर की है। वह किस विषय पर लिखे इसका चयन करना उसका स्वयं का अधिकार है। उन्होंने अपनी “बैसाखियां” कहानी का अत्यंत प्रभावी ढंग से पाठ किया।

कार्यक्रम के अंत में संवाद-सत्र के दौरान डॉ. इला प्रसाद ने श्रोताओं के जिज्ञासा भरे प्रश्नों का संतुष्टिपरक उत्तर भी दिया। कार्यक्रम का कुशल संचालन शीतल मिश्रा ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन राजनीतिक विज्ञान की प्रोफेसर मनीषा मिश्रा ने दिया।

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