Swami Vivekanand: जग उठी है पूर्व की किरणें गिरी धो रही अँचल काया
Swami Vivekanand: सज रही कुन्तल (स्वामी विवेकानंद की स्मृति में)
Swami Vivekanand: जग उठी है पूर्व की किरणें
गिरी धो रही अँचल काया
क्षितिज कोने से देखो वसन्त
करता पदवन्दन तरुवर नरेन्द्र का
राह के कण्टकाकीर्ण छिप रही
पन्थ – पन्थ भी पन्थी के हो रहें साथ
नीली अंबर सज रही कुन्तल घन के
स्वामी यती बन आएँ भव निलय में
स्तुति स्वर लिप्त कहाँ , तम में ?
यह दिवस क्या अथ है या इति ?
चाह मेरी क्यों करुण छाँव में ?
उत्थान जग का कर रहें हुँकार
शून्य – शून्य के पाश में स्वयं जगा
है पर कण – कण में स्वप्निल कान्ति
क्या प्रहर है यह कलि के कुल के कूल में ?
यह लय बिखरी वल के दो बूँद प्रणय के
यह सर्ग सप्त पन्थी तत्व जीवन के
बनें दूत गुरुवर स्वामी धोएँ कलित नयन
सान्ध्य कबके बीती तरणि प्रभा कबसे प्रतीक्षा में
द्विज अब नीड़ में नहीं वों भी उड़ते व्योम में
Daughter engagement: बेटी को पलकों पर रखा, आज वो हो रही पराई है
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