Banner Girishwar Misra

Pt. Madan Mohan Malviya: सात्विक जीवन और संस्कृति के कीर्तिस्तम्भ महामना: गिरीश्वर मिश्र

 Pt. Madan Mohan Malviya: आज राजनीति की बेतरतीब उठापटक में निहित स्वार्थ और छल-कपट केंद्रीय होता जा रहा है। उसके आगे मानव मूल्यों की रक्षा भारी चुनौती बनती जा रही है। दूसरी ओर देश-भक्ति और सेवा-भाव हाशिए पर जा रहे हैं। इस तेज़ी से बदल रहे परिवेश में सच्चाई और चरित्र के सरोकार विचारणीय की सूची से ख़ारिज होते जा रहे हैं। अब ऐसा कोई मुद्दा ही नहीं बच रहा क्योंकि सिद्धांत या विचारधारा ग़ैर-प्रासंगिक हो रही है ।

उसका कोई प्रयोजन ही नहीं बच रहा। ऐसी गम्भीर परिस्थिति में उन स्रोतों को पहचानने एवं स्मरण करने की ज़रूरत और बढ़ जाती है जो इनकी उपयोगिता प्रमाणित करते हैं और दीप-स्तंभ की तरह हमें राह खोजने के लिए ज़रूरी आलोक देते हैं और भटकने से बचाते हैं। ऐसे ही एक दीपस्तंभ का नाम है महामना पंडित मदनमोहन मालवीय (1861-1946) का जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के औपनिवेशिक दौर में अखंड देश-भक्ति, आत्म-त्याग और उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा की अनोखी मिसाल क़ायम की। उनके पिता संस्कृत के पंडित थे और भागवत के मर्मज्ञ थे। परिवार के परिवेश में अनुशासन, संस्कार, सदाचार, स्वाभिमान के भाव विद्यमान थे।

बालक मालवीय ने परम्परागत संस्कृत का अध्ययन शुरू किया फिर अंग्रेज़ी ढर्रे की शिक्षा प्राप्त की, वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की और एक वकील के रूप में ख्याति पाई। पर उन्होंने समाज और राष्ट्र की सेवा को चुना और उसकी धुन में हाईकोर्ट की वकालत छोड़ दी। फिर जीवन में ऐसा बहुत कुछ किया जो कल्पनातीत था। पुरुषार्थ के प्रतीक बने मालवीय जी बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न सिद्ध हुए। उनका कतरित्व बहु आयामी था। वे एक स्वप्नदर्शी शिक्षाविद, तेजस्वी संपादक, सफल वकील, प्रखर स्वतंत्रता सेनानी, ओजस्वी वाणी वाले, तार्किक और अत्यंत कुशल वक्ता थे।  यदि समग्र रूप में कहा जाए तो वे भारतीय संस्कृति के पारदर्शी पुरस्कर्ता थे। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि मालवीय जी भारत के राष्ट्रीय क्षितिज पर अग्रदूत के रूप में अवतरित हुए थे ।

एक अत्यंत साधारण पृष्ठभूमि से आकर मालवीय जी देश के अभ्युदय के लिए पूरी तरह समर्पित रहे और अपने प्रयास से प्रतिमान स्थापित कर गए। भारत भूमि को वे पवित्र मानते थे और इसका गौरव-बोध भी था कि वे भारतवासी हैं। वे जीवन को धारण करने वाले धर्म की, आत्मा की अमरता की और अनेकता में एकत्व की अध्यात्म की अवधारणा को समस्त मानव जाति के लिए प्रासंगिक तथा उपयोगी मानते थे। वे हिंदू धर्म से अभिभूत थे उनके अनुसार यह ‘औरों के मतों का मान करना और सहनशील होना सिखलाता है’। ‘यह किसी पर आक्रमण करने की शिक्षा नहीं देता’।

वह पुराने समय में हिंदू धर्म पर हुए आघातों से दुखी थे और हिंदुओं को बलशाली और संगठित होने पर ज़ोर देते थे। वे चाहते थे कि मुसलमानों को प्रेम से रहना चाहिए जैसे एक माता के दो बालक रहते हैं। वे मानते थे कि हिंदुओं और मुसलमानों में एकता से देश की उन्नति होगी। देश और धर्म की तत्कालीन स्थिति से वे असंतुष्ट थे। अपने बल पर सनातन धर्म के संरक्षण के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए। वे गाँव, उद्योग-धंधे और खेती की दुरवस्था की ओर लगातार ध्यान आकर्षित करते रहे। साथ ही वह आजीवन स्वदेशी व्रत का पालन करते रहे। उनके लिए मनुष्यता की रक्षा सबसे ऊपर थी। सेवा -धर्म को वे परम धर्म मानते थे और भारत को कर्म-भूमि । वे बिना यश की कामना के नि:स्वार्थ सेवा में आजीवन लगे रहे। निजी हित के लिए राष्ट्र-हित से किसी तरह का समझौता उनके लिए अस्वीकार्य था।

Pt. Madan Mohan Malviya

भारतीयता मालवीय जी की वाणी, कर्म और वेश-भूषा सबमें झलकती थी। वे मृदुभाषी, लोकतांत्रिक, सदाचारी, ईश्वरभक्त , मानववादी चिंतक और नेता थे जो अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का दृढ़ता के साथ विरोध करते थे । कटुता और कट्टरता से दूर वह यथाशक्ति सबको साथ ले कर चलते थे। वे मातृभाषा के हिमायती थे और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रबल पक्षधर थे। राष्ट्रीयता या देश–हित की लालसा को आत्मसात् करने के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे । भारत की प्राचीन ज्ञान परम्परा को स्मरण कर अंग्रेज़ी शासन में भारत की शिक्षा की दुर्दशा देख उनको विशेष कष्ट होता था।

उन्होंने राष्ट्र के निवासियों के शरीर, मन और आत्मा को सशक्त बनाने के लिए हिंदू विश्वविद्यालय की परिकल्पना की और एक दशक के सतत प्रयास के पश्चात् 1916 में काशी में उसकी स्थापना की। यह सजिक्षा केंद्र  मालवीय जी के अनेक विचारों का प्रत्यक्ष विग्रह है। शिक्षा पाना उनकी दृष्टि में हर भारतीय के लिए मूल अधिकार था। वे छात्रों के शारीरिक, मानसिक और भावात्मक विकास के लिए सर्वांगीण शिक्षा देना चाहते थे। वे शिक्षा द्वारा शील और सदाचार से सम्पन्न नागरिक बनाने का स्वप्न देख रहे थे। इस हेतु उन्होंने देश भर से श्रेष्ठ विद्वानों को अध्यापन के लिए आमंत्रित किया और विश्वविद्यालय में प्राचीन और अधुनातन अन्यान्य विषयों के अध्ययन के लिए अपेक्षित सारी सुविधाएँ जुटाईं।

कुलपति के रूप में वे अनेक वर्षों तक विश्वविद्यालय के बहुविध विकास के कार्य से जुड़े रहे और फिर यह दायित्व प्रख्यात दर्शनशास्त्री डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को दिया। वे भारत के लिए ऐसी शिक्षा प्रणाली चाहते थे जो युवा वर्ग को राष्ट्रीय चरित्र, देश-भक्ति और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व का बोध कराए। यह विश्वविद्यालय इस लक्ष्य को पाने का मुख्य उपक्रम था जो निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर हो रहा है। जैसा इसके कुलगीत में कहा गया है इसे सचमुच ‘सर्व विद्या की राजधानी’ कहना सर्वथा सार्थक है।

गांधी जी ने उनको ‘महामना’ कह कर संबोधित किया था और वे सच्चे अर्थों में महामना साबित हुए – एक अच्छे और उदार मन वाले सज्जन व्यक्ति । शालीन किंतु असाधारण व्यक्तित्व की महिमा से सम्पन्न महामना सही अर्थों में जन-नायक थे। जीने के लिए आदर्श को जी कर प्रस्तुत करने वाले ऐसे युगपुरुष संस्कृति को स्थायित्व देते हैं और उसे गतिशील भी रखते हैं। वे भारत में एक सामाजिक–सांस्कृतिक परिवर्तन के सूत्रधार बने। सात्विक आचरण की भी अपनी धार होती है जो अपने प्रभाव का वृत्त रचती है और यह क्रम आगे भी चलता रहता है। महामना के सात्विक शौर्य की गाथा के निकट जाना एक उज्ज्वल शीतल नक्षत्र की छाया में रहने की तृप्ति का अनुभव देता है। उनकी पवित्र स्मृति को प्रणाम ।  

Ayushman Card: मोदी की गारंटी का जलवा, विकसित भारत संकल्प यात्रा के दौरान बनाए गए 1 करोड़ आयुष्मान कार्ड

देश की आवाज की खबरें फेसबुक पर पाने के लिए फेसबुक पेज को लाइक करें