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शिक्षा मंत्रालय शिक्षा के प्रति समर्पित और जबाब देह हो

प्रो. गिरीश्वर मिश्र
प्रो. गिरीश्वर मिश्र

पूर्व कुलपति,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय


खबर है कि इंडिया ( अर्थात भारत ) की शिक्षा नीति जो NEP -20 के नाम से ख्यात हो रही है उसके संकल्प के अनुकूल भारत सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय अब ” शिक्षा मंत्रालय ” के नाम से जाना जायगा । इस पर राष्ट्रपति जी की मूहर लग गई और गजट भी हो गया । इस फौरी कारवाई के लिये सरकार बधाई की पात्र है। पर सिर्फ नाम की तख्ती बदलना ही काफी नहीं होगा अगर शेष सब पूर्ववत ही चलता रहे आखिर पहले भी शिक्षा मंत्रालय तो था ही । स्वतंत्र भारत में मौलाना आजाद , श्रीमाली जी , छागला साहब , नुरुल हसन साहब और प्रोफेसर वी के आर वी राव जैसे लोगों के हाथों में इसकी बागडोर थी और संसद में पूरा समर्थन भी हासिल था। सितम्बर 1985 में जब मानव संसाधन का नामकरण हुआ तो श्री पी वी नरसीम्हा राव प्रधानमंत्री थे और इस मंत्रालय को भी सभाल रहे थे।


गौर तलब है कि विभिन्न आयोगों , समितियों और शोध कार्यों में शुरू से ही शिक्षा की दुर्दशा पर चर्चा होती रही है और गुणात्मक सुधार की जरुरत पर सहमति रही है। इस के लिये सुधार लाने में संसाधन की कमी आड़े आती रही परन्तु शिक्षा का आख्यान आगे चलता रहा। चूंकि शिक्षा सभ्य जीवन में एक जरूरी कवायद है इसलिए उसे रोका नहीं जा सकता ।

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अत: शिक्षा के नाम पर संस्थाओं को खोला जाता रहा और निजी करण को बढावा दिया गया । इन सबसे शिक्षा में भी वर्ग ( क्लास ) बनते गए और उसका लाभ उच्च और मध्य वर्ग को मिला । शिक्षा की प्रक्रिया की समझ और उसमें जबदलाव को ले कर गंभीरता नहीं आ सकी । जब कभी इस तरह की कोशिश की गई तो राजनीति की छाया हाबी होती रही। शिक्षा की विसंगतियों से हम उबर नहीं सके। कुछ अपवाद की संस्थाएं बची रहीं और उनकी स्वायत्तता और राजनीतिमुक्तता से उनकी गुणवत्ता विश्वस्तरीय बनी रही । शेष अधिकांश त्राहि माम कर रही हैं।

शिक्षा को ले कर कुछ मुद्दों पर अब स्पष्ट सहमति है :
शिक्षा सर्वांगीण हो इसके लिये शिक्षा को प्रासंगिक , सृजनात्मक, जीवनोपयोगी और सामर्थ्यवान बनाने के लिए प्रयास करना होगा । अत: ज्ञान , कौशल और अनुभव सबको महत्व देना होगा।
शिक्षा में अध्ययन के अवसर रूढ़िबद्द्ध न हो कर व्यापक और उन्मुक्त करने वाले होने चाहिए। विषयों के बंधन कं करने होंगे।


लोक तंत्र की आकांक्षा के अनुरुप उसे समावेशी बनाना होगा ताकि सब की भागीदारी हो सके ।
मातृभाषा नें आरंभिक शिक्षा होनी चाहिए। साथ ही बहुभाषिकता को बढावा देना होगा।
बच्चॉ के लिये पोषण की आवश्यकता है।
संरचनात्मक ढांचे को पुष्ट करना आवश्यक है।
शिक्षा संस्थानों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए ।
शिक्षक प्रशिक्षण को सुदृढ करना होगा।
शिक्षा का समाज की अन्य संस्थाओं के साथ संवाद होना चाहिए। स्थानीय स्तर पर सन्वेदना और कार्य का अवसर मिलना चाहिए।
शिक्षा को संस्कृति और प्रकृति के साथ जुड़ना चाहिए।

समाज में जड़ता की जगह आशा का मनोभाव लाना भी आवश्यक होगा। दुर्भाग्य से शिक्षा तंत्र और उसकी नौकरशाही आज कुटिल होती गई है उसे तब्दील करना बेहद मुश्किल पर जरूरी है। सारी कोशिशों के बावजूद कई विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति वर्षों से नहीं हुई है पर प्रवेश और परीक्षा का क्रम जारी है । हम कहाँ पर खड़े हैं उसकी वस्तुस्थिति का आकलन करना आवश्यक है। क्षेत्रवाद , जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्ट आचरण आदि के कारण अनेक संस्थाए रुग्ण होती गई हैं। साथ ही शिक्षा अपने परिवेश से भी प्रभावित होती है । बाजार , मीडिया और व्यापक घटनाक्रम उसे भी प्रभावित करता है । पर शिक्षा से अपेक्षा है विवेक के लिये और जो अक्ल्याणकर है उसका प्रतिरोध करते हुए नए नए सपने बनने की। इनकी जगह तो शिक्षा केन्द्र हैं।

इनमें विचार के स्वराज की संभावना को आकार देना होगा। नई शिक्षा नीति में इसके अवसर हैं। उन पर अमल करने की जरुरत है। आशा है ” शिक्षा ” में जिस प्रक्रिया का बोध निहित है उस दिशा में शिक्षा मंत्रालय अग्रसर होगा। नाम के साथ कां भी होगा।

*यह लेखक के अपने विचार है।