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Literature for publication: प्रकाशनार्थ साहित्य का निकष है लोक मंगल: गिरीश्वर मिश्र

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (4 अक्टूबर 1884-2 फरवरी 1941) का नाम एक सुखद आश्चर्य लगता है। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में उन्होंने मनो-भावों का एक अनुभवात्मक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया था और लोक-मंगल को आलोचनात्मक विमर्श के केंद्र में लाकर हिंदी विमर्श की सांस्कृतिक संवेदनाओं को उस आरम्भिक दौर में वह ऊँचाई दी जो आज भी स्पृहणीय बनी हुई है।

Literature for publication: आज जब उत्तर आधुनिक बहुलता मूलक विमर्शों के कोलाहल के बीच साहित्य की समझ को जानना दुरूह हो रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल (4 अक्टूबर 1884-2 फरवरी 1941) का नाम एक सुखद आश्चर्य लगता है। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में उन्होंने मनो-भावों का एक अनुभवात्मक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया था और लोक-मंगल को आलोचनात्मक विमर्श के केंद्र में लाकर हिंदी विमर्श की सांस्कृतिक संवेदनाओं को उस आरम्भिक दौर में वह ऊँचाई दी जो आज भी स्पृहणीय बनी हुई है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के मित्र उपाध्याय बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ से उहें बड़ी प्रेरणा मिली थी। काशी नगरी प्रचार सभा, बनारस में ‘हिंदी शब्द सागर’ और नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका के संपादन के साथ इतिहास, भाषा और साहित्य के अध्ययन की एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित हुई । वे 1919 से 1941 तक जीवन पर्यंत बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में हिंदी का अध्यापन करते हुए हिंदी को एक अध्ययन विषय के रूप में स्थापित किया। उनकी रचनाएँ 1900 से 1940 के बीच प्रकाशित हुईं। उनके प्रमुख ‘निबंध कविता क्या है?’ सरस्वती, 1909), ने हिंदी साहित्य में कविता की अवधारणा का विश्लेषण प्रस्तुत किया।

उन्होंने अर्नेस्ट हैकेल की ‘रिडल ऑफ द यूनिवर्स’ का ‘विश्व प्रपंच’ (1920) नाम से अनुवाद को एक विस्तृत प्रस्तावना के साथ प्रकाशित किया जो पश्चिमी और भारतीय दर्शन दोनों में शुक्ल जी की गहरी पैठ को दर्शाता है। ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों की कटु आलोचना करते हुए उनहोने अंग्रेज़ी में निबंध लिखे।

महात्मा गांधी के साथ भी व्यक्तिगत चर्चा की थी। आलोचना, भावनाओं के विश्लेषण, और गोस्वामी तुलसीदास तथा मलिक मोहम्मद जायसी पर समीक्षात्मक लेखन, भ्रमर गीत सार का परिचय, हिंदी साहित्य का इतिहास (1929), और रस मीमांसा हैं। उनकी मृत्यु से ठीक पहले 1940 में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ का दूसरा संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ था। हिंदी साहित्य के विकास की इस प्रस्तुति ने हिंदी क्षेत्र में सांस्कृतिक संवेदनशीलता को जीवंत किया। वे साहित्य को समाज की चित्त वृत्तियों के प्रतिबिंब के रूप में देखते थे।

आचार्य शुक्ल ने 1912 से 1919 के बीच निबंधों की एक श्रृंखला में मनो-भावों का एक निर्माणवादी या सर्जनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने सौंदर्य के साथ-साथ भावनाओं के अनुभवमूलक पक्ष के महत्व को भी स्वीकार किया। भावनाओं के सामाजिक महत्व के मुद्दों को संबोधित करते हुए तथा भावनात्मक संश्लेषण पर ध्यान देते हुए शुक्ल ने उनकी विशेषताओं और वैधता की पहचान के द्वारा भावनाओं के क्षेत्र को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया।

शुक्ल इस बात से अवगत थे कि विभिन्न जीवन-संदर्भों में भावनाओं का उपयोग और दुरुपयोग किया जा सकता है। उनका विचार कि भय और लोभ (लालच) के मनोभावों को को धर्म के क्षेत्र में विशेष रूप से तैनात किया जाता है। भावनाओँ की उत्पत्ति पर विचार करते हुए शुक्ल जी ने विकासवादी दृष्टिकोण को अपनाया। भावनाओं के अनुभव सुख और दुःख की मूल भावनाओं से उसी तरह भिन्न होते हैं जैसे विभिन्न रासायनिक मिश्रण आपस में और उन घटकों से भी भिन्न होते हैं जिनके योगदान से उनका निर्माण होता है। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि मूल भाव रस के रूप में फलित होते हैं।

शुक्ल द्वारा किया गया उत्साह के मनोभाव का विश्लेषण कई मायनों में नया है। यह भावनात्मक स्थिति आनंद की श्रेणी में आती है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसके भीतर एक प्रत्याशित कठिन स्थिति का साहस के साथ सामना किया जाता है जो कार्य के आनंद का एक प्रवाह प्रदान करता है, और कार्य में संलग्नता में प्रतिफलित होता है। इस प्रकार कार्य में संलग्न होने के लिए जिज्ञासा और खुशी के साथ दुःख या हानि सहने की दृढ़ता भी रहती है।

शुक्ल उत्साह के एक महत्वपूर्ण लक्षण के रूप में खुशी या तत्परता के साथ प्रयास पर जोर देते हैं। वह आनंद जो क्रिया को सुगम बनाता है और पूरे प्रयास के दौरान जारी रहता है वह उत्साह है। कर्म के पथ पर आनंदमय प्रगति करने वाले उत्साही व्यक्ति कर्म से विरत व्यक्ति की तुलना में आमतौर पर लाभ में रहेगा। शुक्ल के अनुसार लोक में एकीकृत या विसर्जित होना रस-दशा (भावना से प्रभावित होने की स्थिति) है।

शुक्ल स्वतंत्र रूप से एक नए तरह के समाज के बोध को आकार दे रहे थे। उनका तर्क था कि मानव चेतना प्रारंभ में इन्द्रियों पर आधृत थी। तत्पश्चात् मानसिक क्षमता के विकास के साथ सभ्यताओं का विकास हुआ और बौद्धिक भागीदारी हावी होती गई तथा सजगता महत्वपूर्ण होती गई। धीरे-धीरे मानव-ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत होता गया। इस प्रक्रिया में वह विचारप्रधान होता गया। इसलिए, इस परिवर्तन को हमारी भावात्मक संवेदनाओं में परिवर्तन के साथ पुष्ट करना होगा।

उन्होंने आलोचनात्मक सजगता पर विशेष रूप से जोर दिया। वे हर तरफ़ से विचारों के लिए खुले थे लेकिन विदेशी विचारधारा के अधीन होने का सदैव विरोध करते थे। वह यथास्थिति के भी विरोधी थे और एक गतिशील विश्वदृष्टि रखने वाले बुद्धिजीवी थे। ‘विश्व-प्रपंच’ की प्रस्तावना में शुक्ल ने स्पष्ट किया है कि ‘पदार्थ और ऊर्जा (गति) के बीच स्थायी सम्बन्ध होता है और एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है। आगे यह भी स्पष्ट किया कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही शाश्वत हैं। इसलिए वे रूपांतरित तो हो सकते हैं लेकिन उन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता। ऊर्जा के लिए भी वही सच है जो पदार्थ के लिए है।

शुक्ल ने समाज की सेवा में कविता के उपयोग और उसकी बेहतरी के लिए मदद करने की सम्भावना पर भी विचार किया। उन्होंने कहा कि जब तक भावात्मक संवेदनशीलता को व्यापक नहीं किया जाएगा तब तक प्रकृति के साथ जीवन का समायोजन नहीं होगा सकेगा। शुक्ल जी ने सोचा कि समस्या की जड़ जीवन और प्रकृति के बीच के रिश्तों की गलत व्याख्या थी। वे स्वयं मानव जीवन के सतत विकास में विश्वास करते थे।

जब कोई व्यक्ति अपने अलग अस्तित्व को मानता है और इस दुनिया की विभिन्न गतिविधियों और रूपों को हानि और लाभ, सुख और दुःख से जुड़ा मानता है, तो उसका मन विवश (बंधा) रहता है। जब भी इन रूपों और क्रियाओं की उपस्थिति में व्यक्ति स्वयं को भूल जाता है, और केवल अनुभव के रूप में रहता है, तो वह मुक्त मन (मुक्त) वाला व्यक्ति बन जाता है। जैसा कि आत्मा की स्वतंत्रता की स्थिति को ज्ञान दशा (ज्ञान की अवस्था) कहा जाता है, मन की मुक्त अवस्था को ‘रस दशा’ कहा जाना चाहिए।

कविता मनुष्य की वाचिक अभिव्यक्ति के माध्यम से मन की स्वतंत्रता की खोज है। इस साधना को ‘भाव योग’ कहा जाता है और यह ज्ञान योग और कर्म योग के बराबर है। काव्य रचना के लिए कवि का अनुभव उदात्तता (उच्च बनाने की क्रिया) और साधारणीकरण (सामान्यीकरण) में स्थापित होना चाहिए। कविता मन को एक प्राकृतिक अवस्था (प्रकृत दशा) में लाती है और मानव अस्तित्व के शिखर की ओर ले जाती है। इस प्रकार एक व्यक्तिगत मन दुनिया का मन बन जाता है।

लोक-मंगल (लोगों की भलाई) की अवधारणा भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास पर शुक्ल के प्रतिपादन में दिखाई देती है। लोक-संग्रह या ‘सामाजिक संरक्षण’ शब्द राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक की गीता पर भाष्य-जिसका शीर्षक है, गीता-रहस्य, में प्रमुखता से आता है। वह कर्म सिद्धांत के सौंदर्यशास्त्र के आधुनिक प्रस्तावक बन गए। शुक्ल जी अपने आलोचनात्मक विश्लेषण में लोक मंगल को केंद्रीय अवधारणा के रूप में स्थापित कर प्रस्तुत किया। जब भारत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण अपने चरम पर था शुक्ल जी ने पूर्व-पश्चिम संस्कृतियों के संघर्ष का अपने ढंग से विश्लेषण किया।

उनका मानना था कि जैसे-जैसे सभ्यता परिपक्व होती है, कवि की छिपी हुई इच्छाओं को उजागर करने की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। बौद्धिक साहस के साथ शुक्ल जी ने साहित्यिक आलोचना को नई शब्दावली और मानदंड से लैस करने का प्रयास किया। शुक्ल जी की विरासत संपूर्ण मानवता को समाहित करते हुए आलोचना कार्य की सीमाओं का विस्तार करने और लोक मंगल को चर्चा के केंद्र में लाने में निहित है।

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