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परीक्षा की गिरफ्त में ज्ञान और शिक्षा

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

ज्ञान की वैश्विक दौड़ में आगे बढ़ने के लिये भारत की प्रतिबद्धता बराबर व्यक्त की जाती रही है । ठीक इसके विपरीत परिस्थितियाँ क्रमश: विषम होती गई हैं और धिक्षा का औपचारिक ढांचा प्रवेश और परीक्षा में ही उलझ कर रह गया है। ज्ञान प्राप्ति के प्रमाण के लिये मूल्यांकन किया जाता है और वह छात्र छात्राओं के उपलब्धि का अपरिवर्तनीय दस्तावेज हो जाता है । इसे पाने को ही शिक्षा का व्यावहारिक लक्ष्य बना लिया गया है।

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इस बीच अनेक स्कूली बोर्डों के परीक्षाफल प्रकाशित हुए हैं. परीक्षा और परीक्षा के अंक छात्र छात्राओं और उनके अभिभावकों के लिए सफलता की निर्णायक कसौटी हो चुके हैं. उनमें अधिकाधिक अंक पाना ही शिक्षा की सफलता का मानदंड बन चुका है. परीक्षा परिणामों को देख कर सभी चकित हैं . सबसे चौंकाने वाली बात है कि नब्बे पंचानबे प्रतिशत अंक पाने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत बड़ी तेजी से बढा है और सी बी एस ई में एक विद्यार्थी का पूर्णांक और प्राप्तांक दोनों बराबर हैं. अर्थात सभी विषयों में शत प्रतिशत अंक मिले हैं. निश्चय ही विद्यार्थी जहीन होगा और बधाई का पात्र है परंतु इस तरह की उपलब्धि बढने के आंकड़े में वृद्धि कुछ और भी संकेत करती है. इस स्थिति का अर्थ यह भी लिया जा सकता है बुद्धि और प्रतिभा में आनुवंशिक या पर्यावरण में सकारात्मक बदलाव आया है और इसमें शक नहीं कि बच्चों की बौद्धिक परिपक्वता बढी है . अत: अंशत: यह सत्य भी हो सकता है परन्तु इसका कोई खास कारण नहीं दिखता सिवाय इसके कि सामिष (नान वेज ) खाने और मीडिया तथा इंटर्नेट से जुड़े उपकरणों के उपयोग की मात्रा तेजी से बढी है, आवागमन में सुभीता हुआ है और लोग देशाटन से भी कुछ ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं.

इसी तरह स्कूल की पढाई के बाद कोचिंग और ट्यूशन का प्रचलन भी खूब हुआ है. इस प्रकार कुछ अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक पोषण मिलने की गुंजाइश बनती दिखती है ( यद्यपि फास्ट फूड और व्यसन के नकारात्मक असर भी बढे हैं) . पर इन सबके आधार पर होने वाले कुल नफा नुकसान को ले दे कर परीक्षा परिणाम में इन सबका सम्मिलित योगदान कितना है यह सिर्फ अनुमान का ही विषय है और प्रामाणिक रूप से ज्ञांत नहीं है परंतु इतना तो सत्य है कि आज की व्यवस्था में विद्यार्थियों की अकादमिक उपलब्धि =परीक्षा प्राप्तांक का समीकरण ही मूल आधार के रूप काम कर रहा है. इसलिए परीक्षा के प्राप्तांक पाने की का कामना हर घर परिवार की चुनौती बन गई है और परीक्षा ही शिक्षा का केंद्र विंदु हो चुका है.

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दूसरी बात जिधर ध्यान जाता है वह शिक्षा और परीक्षा की चालू व्यवस्था है जिसमें सिर्फ परीक्षा में निष्पादन (पर्फार्मेंस) पर पूरी तरह से टिके प्राप्तांक को ही तरजीह मिलती है. ऐसा मानने के प्रबल आधार हैं कि परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंकों में आज कल जिस तरह के अप्रत्याशित उछाल देखे जा रहे हैं उसका कारण शिक्षा और परीक्षा की पद्धति और प्रक्रिया में भी मौजूद है . यही अधिक प्रासंगिक कारण प्रतीत होता है. मूल्यांकन का आधार वस्तुनिष्ठ प्रश्न और सीमित शब्द सीमा ( 1 अंक =1 शब्द , 2 अंक =30 शब्द, 3 अंक =60 शब्द, 4 अंक =100 शब्द, 6 अंक =200 शब्द ) वाले प्रश्नोत्तर होते जा रहे हैं . परीक्षा और मूल्यांकन के दौरान अनुचित साधन प्रयोग की घटनाओं को छोड़ दें ( जो कई क्षेर्त्रों में घोर समस्या है) तो परीक्षा की वेला में लिखित परीक्षा में पुनरुत्पादन की शुद्धता और सटीकता ही विद्यार्थियों के ज्ञान को जांचने का एक मात्र आधार हुआ करता है. इस पूरी प्रक्रिया में सृजनात्मकता लगभग अनुपस्थित रहती है (प्रश्नों की लम्बी संख्या और पिछले वर्ष के प्रश्न पत्र को छोड़ दें तो नए सवाल की गुंजाइश समाप्तप्राय सी होती है ). पढाई के सत्र के एक पूरे वर्ष में किसी विषय में कितना ज्ञान अर्जित हुआ इसका प्रदर्शन विद्यार्थी को तीन घंटे में करना होता है और वही उसका दक्षता का प्रमाण बन जाता है. परीक्षा हौवा बन कर आती है और विद्यार्थी और अभिभावक के लिए तनाव का एक बड़ा कारण हो जाती है.

परीक्षा काल के इसी पुण्य अवसर पर उसकी जितनी भी अभिव्यक्ति हो सकी वही उसके मूल्यांकन का आधार बनती है जो इस जन्म में उसके साथ रहता है. प्रत्येक विद्यार्थी जीवनपर्यंत उसी को ढोता रहता है. परीक्षा बेहद जोखिम भरा काम हो चुका है फलत: परीक्षा में सफलता पाने की प्रौद्योगिकी विकसित होती जा रही है और ज्ञान और कौशल का प्रश्न हाशिए पर चला जा रहा है. विशिष्ट अध्यापकों के गुरुकुल , ‘मेडिजी’ , ‘ श्योर गेस’ और ‘कुंजी’ के प्रकाशनों के साथ पर्चा के लीक होने के घटनाएं इसी प्रवृत्ति को द्योतित करती हैं जो परीक्षा को रैकेट का रूप देती जा रही हैं.

यांत्रिक रूप से संचालित सिर्फ परीक्षा पर केंद्रित शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था के परिणाम ज्ञान के अर्जन और सृजन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर रहे हैं. शिक्षा (प्रक्रिया) की जगह परीक्षा (फल) को सुनिश्चित कर पाने की तीव्र लालसा के चलते हम ज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं और यहां के शोध कार्य की गुणवत्ता को ले कर प्रश्न खड़े हो रहे हैं. परीक्षा के अंकों की मारा मारी के चलते कुंठा , हताशा , ईर्ष्या और असफलता के नए आयाम खुलते जा रहे हैं. बहुत से विद्यार्थी तनाव और मानसिक यंत्रणा झेलने लगते हैं. और तो और अंकों के उछाल के चलते नब्बे पंचानबे प्रतिशत अंक ले कर भी विद्यार्थी को वांछित महाविद्यालय में और मनचाहे विषय में प्रवेश की गारंटी नहीं रह गई है. सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से परीक्षा के परिणाम घातक होते जा रहे हैं. सीखने की प्रधानता वाले ज्ञान युग के रूप में जाने जा रहे आज के दौर में भारत में कुछ ज्ञान द्वीप तो बने हैं पर सामान्य माहौल डराने वाला हो रहा है.

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शिक्षा की प्रक्रिया में ज्ञान पाने की लगन , कार्यानुभव और कुशलता को शामिल करना अत्यंत आवश्यक हो गया है. इसकी पात्रता आ जाय इसी का प्रमाण मूल्यवान होना चाहिए और यह सतत विकसित होने वाली व्यवस्था होनी चाहिए. सीखने और ज्ञानार्जन से विद्यार्थी के ज्ञान और आचरण में विशिष्टता लाना और लगातार उसके उपयोग की संभावना तलाशना संभव हो सके तो शिक्षा मुक्त करने वाली होगी अन्यथा वह भार ही रहेगी. आजकल परीक्षा इस भार का सिरमौर बनी हुई है. इसमें बदलाव शिक्षा में सकारात्मक सुधारों की पहली कड़ी होनी चाहिए.

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