Farmer in field

अनावश्यक नहीं है किसानों की चिंता

Mohit Kumar Upadhyay
मोहित कुमार उपाध्याय
राजनीतिक विश्लेषक एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने प्रधानमंत्रित्व काल के शुरुआती दिनों से ही किसानों की बदहाल अवस्था को लेकर चिंतित है और पिछले कुछ समय में नियमित अंतराल पर वह अपने संबोधनों में किसानों की आय को दोगुना करने की बात दोहरा रहे है। कोरोना महामारी के कारण लागू किये गये लाॅकडाउन के दौरान जून, 2020 में राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करते हुए कृषि सुधार से जुड़े अध्यादेशों को जारी किया गया। वर्तमान में संसद के मानसून सत्र में इन अध्यादेशों को अधिनियमों द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है जिसका विपक्षी दलों द्वारा  लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद में अमर्यादित आचरण का परिचय देते हुए विरोध किया गया। विरोध की इन गतिविधियों को देखकर  लोकतंत्र का कोई भी चाहने वाला खुश नहीं होगा। वहीं इन अधिनियमों के विरोध में पंजाब, हरियाणा जैसे कृषि प्रधान राज्यों के किसानों द्वारा भी व्यापक धरना प्रदर्शन आयोजित किये जा रहे है।

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दरअसल भारत में एक लंबे समय से कृषि क्षेत्र में सुधार की मांग की जा रही थी परंतु दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इसका क्रियान्वयन संभव नहीं हो सका। हरेक सरकार किसानों की खुशहाली से संबंधित लंबे चौड़े दावे तो करती रही परंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि दशकों से किसान न केवल अपनी फसल या उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त करने में असफर रहे वरन् समितियों या मण्डियों में मौजूद दलालों की बपौती मात्र बनकर रह गए। यह सर्वविदित है कि वर्ष 1991 में भारत द्वारा वैश्विक प्रभाव के कारण अपनाए गए उदारीकरण एवं निजीकरण से कृषि क्षेत्र अछूता रहा। परिणामस्वरूप भारत में कृषि घाटे का सौदा बनकर रह गई। आज के समय में आवश्यकता इस बात की है कि कृषि का वाणिज्यकरण किया जाए ताकि कृषि को मात्र आजीविका का साधन न बनाकर उसे सेवा एवं उधोग क्षेत्र के समान लाभकारी स्थिति में पहुंचाया जा सके।

भारत का कृषि बाजार राज्यों द्वारा लागू कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) कानून द्वारा संचालित होता है। ऐसे बाजार भारत में लगभग हजारों की संख्या में है। यह कानून उत्पादित वस्तुओं जैसे कि अनाज, दालें, खाद्य तेल आदि को अधिसूचित करते हुए यह व्यवस्था करता है कि इन सभी वस्तुओं की बिक्री एपीएमसी के लाइसेंसधारी एजेंटो या दलालों के माध्यम से हो। पूरे देश में केवल बिहार, केरल, मणिपुर, लक्षद्वीप, अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह और दमन एवं दीव ही समिति कानून से मुक्त है। उल्लेखनीय है कि यह प्रावधान एपीएमसी कानून पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है क्योंकि इस प्रावधान के माध्यम से इन दलालों द्वारा न केवल कृषि उत्पादन को उनके उचित मूल्य से दूर रखा जाता है वरन् किसानों का विभिन्न प्रकारों से शोषण भी किया जाता है। इससे उत्पादित वस्तुओं के मूल्यों में तीव्र वृद्धि होने की आशंका भी बनी रहती है। 

हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा एपीएमसी कानून की इन सभी कमियों को दूर करने के लिए एवं कृषि क्षेत्र में क्रान्तिकारी बदलाव के दावे के साथ तीन सुधारात्मक कानून को लागू किया गया है। पहला, कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य अधिनियम, 2020 जिसका मुख्य उद्देश्य वन नेशन, वन मार्केट को बढ़ावा देना है। दूसरा, मूल्य आश्वासन व कृषि सेवा अधिनियम, 2020 जिसका लक्ष्य किसानों को अनुबंध कृषि का विकल्प प्रदान करना है। तीसरा, आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 जो व्यापारियों को आपात स्थिति के अलावा वस्तुओं को असीमित भंडार का विकल्प प्रदान करता है।

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कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य अधिनियम के द्वारा किसानों के लिए जो मुक्त बाजार की अवधारणा स्थापित की गई है, उसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि अब किसान मण्डी या समिति तक सीमित न रहकर पूरे देश के किसी भी बाजार का चुनाव अपनी फसल के लिए कर सकता है। अब किसानों को राज्य की समितियों या व्यापारियों को किसी भी प्रकार की लेवी या शुल्क देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। वर्ष 2014 – 15 के आर्थिक सर्वेक्षण में एपीएमसी के दलालों द्वारा किसानों से की जाने वाली उगाही को स्वीकारते हुए कहा गया है कि राज्यों के एपीएमसी में अपारदर्शी ढंग से कई प्रकार के बड़े शुल्कों की उगाही की जाती है। ये दलाल खरीदार एवं किसानों के बीच लेन देन पर शुल्क वसूलते है। इस कानून के विरोध में किसानों की यह मांग है कि वन नेशन,  वन मार्केट के स्थान पर वन नेशन,वन एमएसपी को लागू किया जाए। उल्लेखनीय है कि एफसीआइ एवं समितियों में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर फसल खरीदी जाती है।

मूल्य आश्वासन व कृषि सेवा अधिनियम में किसानों की पहुँच मण्डी या समिति तक न रखकर उन्हें अनुबंध कृषि का भी विकल्प प्रदान किया गया है। यह एक सराहनीय पहल है क्योंकि इससे एक साथ कई किसान एवं कृषि हितैषी लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। एक ओर जहां किसान को एपीएमसी के दलालों से छुटकारा प्राप्त होगा, वहीं किसान अपनी फसल के उत्पादन से पूर्व ही खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों,  निर्यातकों और व्यापारियों के साथ आपसी समझौता कर फसल का मूल्य निर्धारित कर सकता है। इस कानून के संदर्भ में यह मत प्रचारित किया जा रहा है कि केंद्र सरकार इस कानून के माध्यम से मण्डी या समिति को खत्म करने का प्रयास कर रही है जो कि गैर तार्किक है क्योंकि इसमें किसानों को अनुबंध कृषि का एक विकल्प प्रदान किया गया है ना कि मण्डियों या समितियों का उन्मूलन। दरअसल यह भ्रान्ति निहित स्वार्थों के कारण विपक्षी दलों एवं कमीशन एजेंटो द्वारा फैलायी जा रही है। यह अधिनियम किसानों से जुड़े कुछ मुद्दों पर मौन है जिससे भविष्य में किसान पूंजीपतियों के शोषण का शिकार हो सकते है।

अनुबंध कृषि के तहत किसानों को उनकी फसल का कंपनियों या पूंजीपतियों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य दिए जाने का प्रावधान नहीं किया गया है इसीलिए किसानों का यह कहना उचित है कि इस कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान किया जाए। हालांकि प्रधानमंत्री ने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का मौखिक आश्वासन प्रदान किया है परंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि निजी कंपनियां शोषण का प्रतीक होती है और केवल नैतिक आधार पर उनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की अपेक्षा करना केवल हास्यास्पद ही अधिक साबित होगा। किसानों का डर है कि इस कानून में कंपनियों एवं किसानों के बीच उत्पन्न किसी भी विवाद के निपटारे के लिए एक ठोस अधिकरण का गठन किया जाए जिसमें निर्धारित समय के अंदर विवादों का निपटारा किया जाए। किसानों का यह डर अनुचित नहीं है  क्योंकि भारत में कृषि क्षेत्र असंगठित है एवं अधिकांश किसान छोटी जोत वाले है। एक अन्य पक्ष यह है कि बोझिल न्याय प्रणाली और निजी संगठित कंपनियां एवं आर्थिक रूप से मजबूत पूंजीपतियों से किसी भी विवादास्पद स्थिति से निपटना भारत के गरीब एवं मध्यवर्गीय किसानों के लिए आसान नहीं होगा।

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यह सर्वविदित है कि सत्तर के दशक में भारत में खाद्य पदार्थों की भारी कमी उत्पन्न हो गई थी जिसके नैतिक समाधान के लिए और देशवासियों एवं किसानों  में उत्साह उत्पन्न करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा जय जवान, जय किसान का नारा दिया गया था। उसी दौरान आवश्यक खाद्य पदार्थों की जमाखोरी एवं कालाबाजारी से निपटने के लिए कुछ खाद्य पदार्थों को आवश्यक वस्तुओं की सूची में रखा गया जिसके परिणामस्वरूप आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 को कार्यान्वित किया गया। हरित क्रांति से प्राप्त सफल परिणामों के कारण भारत न केवल खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन गया बल्कि इस क्षेत्र से जुड़ी वस्तुओं का निर्यात भी करने लगा है। इन बदली हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 लागू किया गया। इस अधिनियम के अनुसार अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज व आलू को आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर निकाल दिया गया है। यह खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों, निर्यातकों और व्यापारियों अर्थात निजी कंपनियों को असीमित भंडार का विकल्प प्रदान करती है। आपातकालीन परिस्थितियों जैसे युद्ध, सूखा, प्राकृतिक आपदा और अप्रत्याशित मूल्यों में वृद्धि के दौरान केंद्र सरकार आवश्यक वस्तु को अपने नियंत्रण में रख लेगी। 

पिछले कुछ समय से भारतीय किसान स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू करने एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक अधिकार प्रदान करने की मांग कर रहे है परंतु वर्तमान केंद्र सरकार जो स्वयं को किसान हितैषी साबित करने में संलग्न है, किसानों की इन मांगों को लेकर गंभीर नहीं है। वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि किसानों की  सभी उचित मांगों पर ध्यान दिया जाए और समय एवं परिस्थितियों के संदर्भ में लागू करने का प्रयास किया जाए ताकि किसानों की आय को बिना किसी बाधा के शीघ्रता से दोगुना किया जा सके और उन्हें पूंजीपतियों या निजी कंपनियों के हाथ की कठपुतली बनने से रोका जा सके। (डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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