जीवन और आजीवका के संघर्ष  : गिरीश्वर मिश्र

Mishra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

पिछले कुछ समय से पूरे देश के लिये हुक्म था कि घर में बंद रहो और यह जीवन की रक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी के लिये लिया गया सरकारी निर्णय  है जिसका सब ने मान रखा । पर घर-बैठकी का अर्थ गरीब और अमीर या फिर पक्की नौकरी वाले जो महीने महीने तनखाह उगाहते हैं सबके लिये एक सी नहीं हुआ करती। जो रोज कमाते खाते हैं उनकी मुसीबत सबसे ज्यादा है । इन्तजार करते  दिन , हफ्ते  और महीने बीते और उनका दिन ही शुरू नही हो रहा है। जिस छोटे-मोटे काम से उनका निर्वाह होता था वहां भी तालाबन्दी है और इस विकट घड़ी में कुछ भी सूझ नहीं रहा है । उन्हे यह भी समझ में नहीं आ रहा कि आखिर उनका कसूर क्या है और उनकी किस गलती से  उनकी रोजी रोटी छिन गई ।

महामारी बड़ी या पेट की भूख

ऐसी बेहाली में इन गरीबों को  सोचना पड़ा कि महामारी बड़ी या पेट की भूख ? मरने के लिए भी तो जीना जरुरी है, आखिर भूख से मरने के बाद बीमारी किसको मारेगी? सो इन दिहाडी मजदूरों के सामने कोई और विकल्प नहीं बचा सिवाय इसके कि वे वापस अपने अपने गाँव जाय और नए सिरे से गुजर बसर करने का कुछ उपाय करें। जिन्दगी और मौत के संशय में लाक डाऊन की परवाह न करते हुए वे गाँव की ओर कूच कर दिए । लाखों की तादात में ये मजदूर सैकड़ों मील दूर की मंजिल की ओर चल पड़े । लोकतंत्र में व्यक्ति को स्वतंत्रता है और उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है  सो अपने सीमित संसाधनो से इनकी लम्बी यात्रा शुरु हुई ।

सरकार और विपक्ष दोनों ही परिस्थिति का जायजा लेते रहे , द्रष्टा बने रहे , कानून और व्यवस्था के नाम पर मन मर्जी करते रहे और भूखे प्यासे मजदूरवर्ग का कारवां चलता रहा।आरम्भ में सरकारी व्यवस्था में विशाल जन प्रवाह को रोकने की न मंशा थी न व्यवस्था ही थी। पर बढते दबाव के बीच कुछ करने के लिए बाध्य होना पड़ा । रहने खाने की कुछ व्यवस्था शुरू हुई। फिर बसॉ से पहुंचाने का दौर शुरू हुआ। अगले चरण में ट्रेन चली जिसै लेकर केन्द्र और प्रदेश सरकारों के बीच जो तना तनी हुई वह अभी बर करार है। ट्रेन का आना जाना विलक्षण ढंग से हो रहा है । सरकारी खींच तान के बीच  उनका चलना ही मुश्किल होता है और जो चल भी रही हैं  तो अपने गन्तव्य तक  पहुंचने में  तीन गुना समय ले रही है और उसमें जरुरी सुविधाएँ भी नहीं रह रही हैं।  गिरते पड़ते गाव पहुंचने पर उन्हे कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है।

स्थितियाँ सामान्य नहीं हैं

यह सही है कि स्थितियाँ सामान्य नहीं हैं पर जिस तरुद्दद से ये गरीब गुजर रहे हैं उनसे बचा जा सकता है और परिस्थति को बेहतर बनाया जा सकता है। कई जगह अधिकारियो और आम जनता की अच्छी पहल की खबरें भी आ रही हैं। परन्तु व्यापक  नीतिगत प्रश्न मुंह बाए खड़े हैं। इन सबके बीच राजनीति का चरित्र भी श्वेत श्याम  अपने सभी रंगों के साथ उभरा। पता चला राजनीति सिर्फ राजनीति होती है और मानवता के प्रश्न भी उसी दायरे में निपटाए जायगे । अकरुण भाव से जो  व्यवस्था हो रही है वह नाकाफी है। बहुत से मजदूर अपने पूरे परिवार के साथ उखाड़ फेंकने की अनुभूति ले कर लौट रहे हैं और उन्हे कुछ सूझ भी नहीं रहा है।

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मजदूरौं का पलायन नियमित रुप से जारी है किन्तु लाखों की संख्या में श्रमिकों की स्थिति, उनके श्रम के योगदान और समाज में उनके स्थान को लेकर कोई सोच नहीं बन पा रही है। गावोँ में उनके स्वास्थ्य , पुनर्वास और वापसी को ले कर गंभीरता से कोई विचार विमर्श नहीं हो रहा है। इस कठिन समय में राज धर्म की एक ही पुकार है कि राजनीति को मुल्तबी रख कर जीवन की लौ जलाए रखने की युक्ति सोची जाय । खट्टे मन और क्षोभ के साथ लुटे हुए जैसी अनुभूति लिये हुए इन परिवारों की भावना और आवश्यकता को समझ कर सहयोग देना जरूरी होगा। इस हेतु गाँव को विकास की रणनीति में वरीयता देनी होगी।

 लाक डाऊन के खत्म होने के साथ मजदूरों की  वापसीकी व्यवस्था खड़ी हो रही है। स्वास्थ्य और आजीविका  का संतुलन बनाना कठिन चुनौती है। बड़े उद्योगों में इन मजदूरों की भूमिका महत्वपूर्ण है और औद्योगिक विकास को गति देना भी जरुरी है। प्नधानमंत्री जी ने आत्मनिर्भर भारत का आह्वान किया है। इस उददेश्य को चरितार्थ करने में इन दीन हीन मजदूरों की बड़ी भूमिका होगी। असंगठित क्षेत्र में श्रम के मूल्य को प्रतिष्ठित करना बड़ी चुनौती है जिस ओर ध्यान कम ही जा पाता है। आशा है इनकी भी सुनी जायगी और आर्थिक नियोजन में उचित स्थान मिलेगा ।

*यह लेखक के अपने विचार है।