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भारत में हिंदी भाषा की स्थिति एवं उपयोगिता

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संविधान सभा में एक बृहत चर्चा के उपरांत 14 सितंबर 1949 में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया. संविधान के भाग 17 में अनुच्छेद 343 से 351 तक देश की अधिकारिक भाषा के संबंध में व्यवस्था की गई जिसमें हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी रखा गया. भारत में यह आम धारणा है की हिंदी उनकी राष्ट्रभाषा है परंतु वास्तविक तौर पर हिंदी हमारे देश की राजभाषा है. सामान्य तौर पर समझे तो राजभाषा मतलब संसद से लेकर निम्न सरकारी दफ्तर में आम प्रयुक्त होने वाली भाषा. सूचना के अधिकार के तहत भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार अनुच्छेद 343 में हिंदी को भारत की राजभाषा यानी सामान्य राजकाज की भाषा माना गया है. भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा से संबंधित कोई उल्लेख नहीं मिलता है. भारत में आज भी आधिकारिक तौर पर अंग्रेजी को हिंदी के समांतर प्रयोग में लाया जा रहा है. वैश्वीकरण के इस दौर में तो अंग्रेजी की महत्ता अधिक हो चली है. लोगों की मानसिकता में यह विचार आना की अंग्रेजी संभ्रांत एवं विकसित होने का परिचायक है हिंदी के विकास के लिए बिल्कुल ही उपयुक्त नहीं है. किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए एक राष्ट्र भाषा का होना अत्यंत आवश्यक होता है. राष्ट्रभाषा यानी उस राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को उस भाषा का ज्ञान होना एवं उसे आत्मिक तौर पर अपनाना कहीं ना कहीं राष्ट्र की अखंडता को और मजबूती प्रदान करता है. उस राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत एवं संप्रभुता को और सुदृढ़ करता है.

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कुमार सत्यम

सहायक प्राध्यापक,समाज कार्य विभाग
डॉ. भीमराव अंबेडकर कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय

भारत एक विविधताओं से भरा देश है. यहां की संस्कृति, वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन, बोली-भाषा एवं विचारों में भिन्नता है. भारत के उत्तर से दक्षिण एवं पश्चिम से पूर्व तक की सीमाएं विविधताओं से पटी है. फिर भी हमारा देश अगर एक सूत्र में बंधा है तो वह भारत के लोगों की भारतीयता ही है. इसी भारतीयता की एक अनिवार्य तत्व यहां की भाषा एवं संस्कृति है. महात्मा गांधी भी एक देश एक भाषा के सिद्धांत समर्थन करते थे. भारत में हिंदी सबसे ज्यादा बोली एवं समझी जाने वाली भाषा है. इस भाषा का जन्म ही तो संस्कृत से हुआ है. सामान्यतः यह कहा जाता है कि संस्कृत का सरल रूप ही हिंदी है. भाषा ही वह माध्यम है जिससे सांस्कृतिक विरासत को अगली पीढ़ी तक पहुंचाई जाती है. भारत के विराट सांस्कृतिक विरासत को सहेजने एवं निस्तारण में इस लोक भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है. आज के दौर में इस भाषा की उपेक्षा किसी से छुपी नहीं है. जहां हमें गर्व होनी चाहिए थी एवं इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त करने के लिए चर्चा होनी चाहिए थी, पर इसके विपरीत हम अंग्रेजी भाषा को अधिक महत्व दे रहे हैं.

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बच्चों को बचपन से ही विदेशी भाषाओं के प्रति संवेदनशील बनाना एवं हिंदी में वार्तालाप को उपेक्षित दृष्टि से देखना न्यून मानसिकता का परिचायक है. भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक परिवेश में पल रहे शिशुओं को भारतीयता के साथ विकसित होने देना भारत के उन्नत भविष्य के लिए अच्छा होगा. वर्तमान परिस्थिति में देखें तो परिष्कृत हिंदी भाषा में पारस्परिक संवाद स्थापित करना कठिन हो गया है. अगर वह हिंदी का प्रयोग कर भी रहे हैं तो विदेशी भाषाओं का प्रभाव उनके संवाद में परिलक्षित होने लगता है. ऐसे लोग अंग्रेजी को प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में देखते हैं. मेहमानों के घर पर दस्तक से उनकी विदाई तक अभिभावक अपने बच्चे से अंग्रेजी में संवाद करते हैं. बच्चे को फलों, सब्जियों, महीने, रिश्ते, पहाड़े इत्यादि सभी उन्हीं विदेशी भाषाओं में संप्रेषित किया जाता है. पर वह भूल जाते हैं उनकी भारतीयता तो से भारत की है, बाहरी सामाजिक परिवेश में जब वह प्रवेश करता है तो उसी भारतीयता से लबरेज होना पड़ता है.

फलस्वरूप बालक-बालिकाओं के चेतन मन को दोराहे का सामना करना पड़ता है. इसीलिए आवश्यक है की हमें अपनी मातृभाषा या ऐसी भाषा जिसमें संप्रेषण, प्रतीकात्मक ना होकर आत्मिक, आध्यात्मिक एवं भावनात्मक हो, करनी चाहिए. अंग्रेजी सीखना एवं उपयोग करना कोई नकारात्मक पहलू नहीं है पर हां अंग्रेजी हमारी लोक भाषा हिंदी का विकल्प नहीं हो सकता. अंग्रेजी सीखना एवं जानना को बस एक अतिरिक्त कौशल के रूप में ही देखा जाना चाहिए. भारत की पहचान इसी लोक भाषा से होनी चाहिए. भारत के समाज में परिवार एक महत्वपूर्ण कड़ी है. परिवार अगली पीढ़ी को सांस्कृतिक विरासत आगे बढ़ाने का दायित्व देते हैं . भारत की आत्मा आज भी गांव में बसती है. दादी एवं नानी मां की कहानियां, उनके बताए शिक्षाप्रद एवं जनउपयोगी कर्तव्य इन्हीं जन भाषा में संप्रेषित होती है, अर्थात यह जनभाषा व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास एवं उसे महत्वकांक्षी बनने में योगदान देता है.

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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत श्री अटल बिहारी जी का संयुक्त राष्ट्र की बैठक में ओजस्वी भाषण हिंदी की महिमा को दर्शाता है. हिंदी के प्रचार एवं प्रसार में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. इस समिति के सतत प्रयास से एवं अन्य सम्मेलनों के फलस्वरूप महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ. मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना इसी कड़ी में शामिल है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी अपनी पहचान स्थापित करता आ रहा है. हाल के वर्षों में ऑस्ट्रेलिया में हिंदी को लेकर रुझान इसका प्रमाण है. हालांकि कुछ बरसों से सरकारों द्वारा हिंदी को बढ़ावा देना सार्थक कदम रहा है. पर फिर भी हिंदी को उसका श्रेष्ठ स्थान मिलना बाकी है. एक अभिभावक, शिक्षक एवं सहपाठी के तौर पर हमें हिंदी का उपयोग एवं प्रचार-प्रसार करना सराहनीय कदम होगा. शैक्षणिक संस्थानों में खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी में शैक्षणिक सामग्री की कमी देखी गई है. भारतीय शिक्षण मंडल की कोशिश रही है की हिंदी में शैक्षणिक सामग्रियों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए. इस दिशा में यह संगठन खुद शिक्षा से जुड़े लोगों को प्रोत्साहित करते हैं.

आज हिंदी दिवस के अवसर पर हम सभी को प्रण लेना चाहिए की हम हिंदी को उनका उचित स्थान दिलाने के लिए प्रयासरत रहेंगे. हम अपनी क्षेत्रीय भाषा का उपयोग कर सकते हैं पर हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा हो, लोक भाषा हो इस परिकल्पना के साथ हमें उचित कदम उठाने हैं. समाज के साथ-साथ सरकारों की भी उत्तरदायित्व बनती है कि वह इस दिशा में आम सहमति को पल्लवित करें एवं हिंदी को राजभाषा नहीं अपीतु राष्ट्रभाषा का सम्मान दिलाएं.

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