Indira gandhi

आपातकाल : लोकतंत्र का काला अध्याय

Mohit Kumar Upadhyay
मोहित कुमार उपाध्याय (भारतीय संविधान एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार)

भारतीय जनमानस के मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक हैं कि जून,1975 में अचानक देश में ऐसी कौन सी विकट स्थिति उत्पन्न हो गई थी जिस कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लोकतांत्रिक शासन को सुचारू रूप से चलायमान रखने में बाधा महसूस हुई और इसके समाधान के रूप में आपातकाल ही उन्हें एकमात्र विकल्प नजर आया।

Indira gandhi


गौरतलब हैं कि 1971 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में भारी भरकम बहुमत के साथ इंदिरा गांधी ने शानदार ढंग से  अपना कार्यकाल शुरु किया। इस आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने “गरीबी हटाओ” का नारा दिया जिससे आमजन की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का दबाव उन पर बढ गया। परंतु जनता से किये गये स्वप्नदर्शी वादों को निभाने में वह पूरी तरह असफल साबित हुई और अंत में अपने बेहतर राजनीतिक भविष्य की चाह में उन्होंने देश को आपातकाल की आग में झोंक दिया। 1971 में बांग्लादेश के नव निर्माण में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध एवं 1973 में अंतरराष्ट्रीय तेल कीमतों में हुई बेतहाशा बढ़ोतरी के कारण महंगाई में वृद्धि एवं भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आयी। वहीं बांग्लादेश से भारत आए लगभग 1 करोड़ शरणार्थियों को शरण दिए जाने एवं उनकी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में किये गये अत्यधिक खर्च के कारण केंद्र सरकार के खजाने पर अतिरिक्त बोझ बढ़ गया जिससे बजट घाटे में वृद्धि हुई।  वर्ष 1972 एवं 1973 में मानसून भी असफल रहा जिससे देश को एक बड़े स्तर पर अकाल एवं सूखा का सामना करना पड़ा। सूखे के कारण खाद्यान्न उत्पादन में कमी एवं खाद्य पदार्थों के मूल्यों में  अत्यधिक वृद्धि हुई। इसके अलावा देश में शासन एवं प्रशासन के स्तर पर फैला व्यापक भ्रष्टाचार एक प्रमुख समस्या के रूप में सामने आया। इन सभी कारणों के सम्मिलित प्रभाव एवं इंदिरा शासन का आर्थिक मोर्चे पर विफल रहने के कारण देश में जनअसंतोष उभरने लगा। राष्ट्रीय स्तर पर इस जन असंतोष की परिणति गुजरात एवं बिहार छात्र आंदोलनों के रूप में हुई।

जनवरी,1974 में गुजरात के छात्रों ने अनाज, तेल एवं अन्य आवश्यक पदार्थों की कीमतों में हुई वृद्धि के कारण आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन को विपक्षी दलों ने भी अपना समर्थन देना शुरू कर दिया। आंदोलन का असर कितना प्रभावशाली रहा होगा, यह इससे स्पष्ट होता हैं कि इंदिरा गांधी ने अधूरे मन से चिमनभाई पटेल के नेतृत्व में तत्कालीन गुजरात कांग्रेसी सरकार को इस्तीफा देने के लिये मजबूर किया और विधानसभा निलंबित कर दी गईं। परंतु आंदोलनकारी विधानसभा भंग करने की मांग पर अड़े रहे। आखिरकार इंदिरा गांधी को प्रभावशाली नेता मोरारजी देसाई जो आपातकाल के पश्चात भारत के प्रधानमंत्री बनें, के आमरण अनशन पर बैठने के कारण मार्च,1975 में विधानसभा भंग करने पर मजबूर होना पड़ा। गुजरात आंदोलन की तर्ज पर ही बिहार के छात्रों ने भी इन सभी समस्याओं को आधार बनाकर एवं विधानसभा भंग करके दोबारा चुनाव कराने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया।

Vidhan sabha

इस आंदोलन के कार्यक्रमों में विधानसभा के सदस्यों पर दबाव डालकर इस्तीफा दिलवाना, विधानसभा एवं राज्यपाल आवास का घेराव शामिल था। बिहार छात्र आंदोलन की मुख्य विशेषता यह थी कि आंदोलन की कमान, छात्रों के समूह द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, स्वतंत्रता सेनानी एवं राजनीतिक संन्यास का त्याग करके आए लोकप्रिय गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण के हाथों में थी। जयप्रकाश नारायण ने  आंदोलन का नेतृत्व अपनी दो शर्तों के साथ शुरू किया – प्रथम, आंदोलन अंहिसक होगा। दूसरा, आंदोलन को केवल बिहार की सीमा तक ही सीमित नहीं किया जाएगा अर्थात आंदोलन का पूरे भारत में प्रसार किया जाएगा। जयप्रकाश नारायण पूरे भारत में व्यापक स्तर पर फैले भ्रष्टाचार की समस्या को लेकर चिंतित थे। भ्रष्टाचार की इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए  उन्होंने पूरे भारत के लिए “सम्पूर्ण क्रांति” का नारा दिया। अर्थात यह उस पूरी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष था जिसने प्रत्येक व्यक्ति को भ्रष्ट बनने के लिये मजबूर किया था। स्पष्ट हैं कि जेपी का यह नारा इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन को अप्रत्यक्ष रूप से चुनौती देता हुआ दिखाईं पड़ रहा था।

इंदिरा गांधी अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ के कारण गुजरात विधानसभा के समान बिहार विधानसभा को भंग करने के लिए तैयार नहीं थी। उन्हें इस बात का डर था कि कहीं विधानसभा भंग करने की आग पूरे भारत में शुरू होकर इसकी लपट लोकसभा को भंग करने की मांग तक न पहुंच जाए। 1974 की एक और महत्वपूर्ण घटना थी जिसने आग में घी का काम किया। वह घटना थी – रेलवे मजदूरों की हड़ताल। इसका नेतृत्व किया समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस ने, जिन्हें आपातकाल के लगभग एक वर्ष पश्चात डायनामाइट के जरिए विस्फोट करने का प्लान तैयार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इतना ही नहीं, उनके बड़े भाई लाॅरेंस और महिला मित्र स्नेहलता रेड्डी को भी पुलिसिया यातना का सामना करना पड़ा जबकि उनकी पत्नी और बच्चों को पुलिस के अत्याचार से बचने के लिए विदेश भागना पड़ा। धीरे धीरे दिसंबर,1974 तक जेपी आंदोलन कमजोर पड़ने लगा। इस आंदोलन को मुख्य बल मिला – जून,1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक निर्णय से। 12 जून,1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के “न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा” ने 1971 के आम चुनाव में लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली से इंदिरा गांधी द्वारा पराजित उम्मीदवार एवं समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर अपना फैसला देते हुए उनको सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग एवं भ्रष्ट आचरण में लिप्त होने का दोषी पाया और उनके निर्वाचन को अमान्य घोषित कर दिया। इतना ही नहीं इस फैसले में यह भी आदेश दिया गया कि आगामी 6 वर्षों तक इंदिरा गांधी न तो निर्वाचन में उम्मीदवार बन सकती हैं और न ही कोई संवैधानिक पद धारण कर सकती हैं। स्पष्ट हैं कि न्यायालय के इस निर्णय से इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री पद पर बने रहना मुश्किल ही नहीं बल्कि  असंभव था।

जेपी और अन्य विपक्षी दलों ने न्यायलय के फैसले को आधार बनाकर इंदिरा गांधी पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। इंदिरा गांधी की मंशा हर हाल में सत्ता में बने रहने की थी। अत: उन्होंने त्यागपत्र देने से इंकार कर दिया। उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध इंदिरा गांधी ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की। उच्चतम न्यायालय ने उनकी इस याचिका पर 14 जुलाई को सुनवाई करने का आदेश दिया। इस दौरान जेपी के साथ मिलकर अन्य विपक्षी दलों ने मौके का भरपूर लाभ उठाते हुये इंदिरा गांधी पर भ्रष्ट तरीकों से हथियाए गए पद से चिपके रहने का आरोप लगाया।

25 जून, 1975 को जेपी तथा विपक्षी दलों के गठबंधन ने दिल्ली के रामलीला मैदान में  इंदिरा गांधी की हठधर्मिता के विरोध में एक रैली का आयोजन किया गया। इस रैली में दिए गए भाषण में जेपी ने जनता से आग्रह किया कि वे सरकार के कामकाज का चलना असंभव बना दें। उन्होंने सशस्त्र सेनाओं, पुलिस बलों और सरकारी अधिकारियों से यह अपील की कि वे किसी भी सरकारी आदेश का पालन न करें और ऐसे किसी आदेश को गैर कानूनी एवं गैर संवैधानिक समझा जायें। इस रैली में यह भी तय किया गया था कि 29 जून से एक राष्ट्रव्यापी सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया जाएगा जिसमें प्रधानमंत्री आवास का घेराव उस समय तक किया जाना शामिल था जब तक कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर न कर दिया जाए। जेपी ने सीधे तौर पर इंदिरा गांधी पर यह आरोप लगाया कि वह भारतीय लोकतंत्र, संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं को समाप्त करने एवं रूस समर्थित तानाशाही को भारतीयों पर थोपने का प्रयास कर रही है।

इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने, विपक्षी दलों की बढती एकजुटता को रोकने और सत्ता में बने रहने एवं जनता में अपनी साफ सुथरी छवि बनाए रखने के लिए एक गैर लोकतांत्रिक निर्णय देश की जनता पर थोप दिया जिसे भारतीय राजनीतिक इतिहास में सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में जाना जाता है। यह एक गैर लोकतांत्रिक निर्णय था – इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्रपति के माध्यम से 25 जून 1975 की आधी रात के समय, जब पूरा देश आंखो में बेहतर भविष्य का सपना लिए मीठी नींद ले रहा था, भारतीय संविधान के अनुच्छेद – 352 का दुरूपयोग करते हुए एवं राष्ट्रपति का रबर स्टांप के रूप में प्रयोग करते हुए आंतरिक अशांति के आधार पर आपातकाल लागू किए जाने की उद्घोषणा। इसके साथ ही उन्होंने यह भी दावा किया कि जैसे ही परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाएगी वैसी ही सभी नागरिक एवं संवैधानिक अधिकार पुनः बहाल कर दिए जाएंगे।

आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी मौलिक अधिकारों या संवैधानिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। राज्य विधानमंडल की सभी कार्यपालिका शक्ति अप्रत्यक्ष रूप से केन्द्र सरकार के हाथों में आ गयी। कुल मिलाकर आपातकाल की उद्घोषणा से भारतीय लोकतंत्रात्मक संसदीय शासन प्रणाली एकीकृत शासन प्रणाली के रूप में परिवर्तित हो गई। केन्द्र सरकार ने प्रेस पर कड़ी सेंसरशिप लागू कर दी और उस रात दिल्ली के सभी प्रेस दफ़्तरों की बिजली काट दी गई। अब सरकार की किसी भी नीति या आदेश की आलोचना नहीं की जा सकती थी।

26 जून की सुबह विपक्ष के सभी प्रमुख नेताओं को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम एवं भारत सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। गिरफ्तार किये गये लोगों में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर इत्यादि भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के सभी बड़े नेता शामिल थे। इसके अलावा शिक्षाविद, पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, छात्रनेता एवं ट्रेड यूनियन के नेता इत्यादि शामिल थे। अनेक सांप्रदायिक संगठन जैसे – आरएसएस, जमात ए इस्लामी तथा माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध आरोपित कर दिया गया। इन गिरफ्तारियों में समाज विरोधी गतिविधियों में संलिप्त व्यक्ति भी शामिल थे। जैसे – तस्कर, जमाखोर, कालाबाजारी करने वाले एवं गुंडे। पूरे आपातकाल के दौरान गिरफ्तारियां चलती रही और कुल मिलाकर एक लाख से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया। हालांकि ज्यादातर लोगों को कुछ दिनों या महीनों के बाद छोड़ दिया गया। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के प्रबल विरोधियों में शामिल आचार्य जे बी कृपलानी का गिरफ्तार न किया जाना एक आश्चर्यजनक घटना थी। उस समय आचार्य कृपलानी की उम्र लगभग 90 वर्ष के करीब थी। परंतु  इंदिरा गांधी उन्हें उम्र के कारण नहीं बल्कि उनके विराट व्यक्तित्व के कारण गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं दिखा पायी। इस पर कृपलानी ने चुटकी लेते हुए कहा था कि “डायन भी एक घर छोड़ देती है।” 1975  में खराब स्वास्थ्य के आधार पर जेपी तथा अन्य नेताओं को तथा 1976 में अटल बिहारी और चरणसिंह को छोड़ दिया।

आपातकाल के दौरान संसद को पूरी तरह निष्प्रभावी बना दिया गया। दो गैर कांग्रेसी सरकार तमिलनाडू में डी एम के तथा गुजरात में जनता पार्टी को क्रमशः जनवरी और मार्च,1976 में बिना किसी खास वजह के बर्खास्त कर दिया गया। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भावी पीढ़ी को बेहतर भविष्य सौंपने के लिए कड़ी लग्न एवं मेहनत के साथ जिस नागरिक अधिकार प्रदत्त संविधान का निर्माण किया गया था, उस संविधान के मूलभूत ढांचे को, निहित राजनीतिक स्वार्थ एवं अपनी शक्ति को निरंकुश स्वरूप प्रदान करने के लिए, इंदिरा गांधी द्वारा बदलने का भरपूर प्रयास किया गया। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं –  42वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 जिसे लघु संविधान के रूप में भी जाना जाता है। संविधान संशोधन द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए न्यायालय के “न्यायिक पुनरीक्षण” के अधिकार को सीमित कर दिया गया। यह प्रावधान कर दिया गया कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर कोई मर्यादा अधिरोपित नहीं की जा सकती है।

अपने निर्वाचन संबंधी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय की वैधानिकता को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त घोषित करने के लिए इंदिरा गांधी ने 39वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1975 पारित किया। इसमें यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के निर्वाचन संबंधी विवादों पर ऐसे प्राधिकारी द्वारा विचार किया जा सकेगा जो संसदीय कानून द्वारा नियुक्त किया जाए। 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा जनता पार्टी के शासनकाल में इस अधिनियम को गैर संवैधानिक घोषित कर दिया गया। संविधान के भाग तीन द्वारा भारतीय नागरिकों एवं व्यक्तियों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों को कमजोर बनाने के लिए नीति निर्देशक तत्वों को मौलिक अधिकारों पर प्रमुखता प्रदान की गई। आखिरकार नवंबर, 1976 में संसद द्वारा संविधान में संशोधन करके लोकसभा के कार्यकाल को एक वर्ष से अनधिक अवधि के लिए बढ़ा दिया गया। इंदिरा सरकार का यह कदम भारत में निर्वाचन आयोग द्वारा कराये जाने वाले स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने आया। लोकसभा के कार्यकाल को 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया जिसे पुनः जनता पार्टी के शासनकाल में 5 वर्ष कर दिया गया।

आपातकाल के दौरान की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी – इंदिरा के पुत्र सजय गांधी का समानांतर सत्ता के रूप में उभरकर सामने आना और शासन एवं प्रशासन के क्रियाकलापों में इच्छानुसार गैर-जरूरी हस्तक्षेप करना। जबकि उस समय संजय गांधी न तो केन्द्र सरकार में किसी पद पर थे और न ही संसद के दोनों सदनों में से किसी सदन के सदस्य। आपातकाल के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा लागू किये गये बीस सूत्रीय कार्यक्रम की तर्ज पर संजय गांधी ने अपने चार सूत्रीय कार्यक्रम पेश किया। उल्लेखनीय हैं कि इन चार सूत्रीय कार्यक्रम को आधिकारिक बीस सूत्रीय कार्यक्रम पर प्रमुखता प्रदान की गई। इन चार सूत्रीय कार्यक्रम में शामिल थे :- विवाह के समय दहेज न लें, परिवार नियोजन, वृक्षारोपण एवं साक्षरता वृद्धि। इन सभी चारों कार्यक्रमों में से जनसंख्या नियंत्रण पर रोक लगाने के लिये परिवार नियोजन को अधिक निरंकुश ढंग से लागू किया गया।

कुछ समय पश्चात् परिवार नियोजन कार्यक्रम की सफलता के लिए एवं जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी को अनिवार्य कर दिया गया और इसके लिए सरकारी कर्मचारियों एवं स्वास्थ्य अधिकारियों पर निश्चित कोटा की व्यवस्था थोप दी गई। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में सौंदर्यकरण के लिए झुग्गी झोपड़ी एवं अवैध ढांचे को गिराने का काम भी परिवार नियोजन के समान ही क्रूरता से लागू किया गया। संजय गांधी लोकतंत्र और विकास को परस्पर विरोधी समझते थे। इस तथ्य की पुष्टि उनके इस कथन से होती हैं कि आने वाली पीढ़ियां हमसे ये नहीं पूछेंगी कि हमने कितने चुनाव करवाए, बल्कि वे हमसे ये पूछेंगी कि हमने कितनी तरक्की की।

यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं कि आखिरकार भारतीय जनमानस ने आपातकाल को स्वीकृति क्यों प्रदान की! 
इसका सबसे महत्वपूर्ण एवं तार्किक पक्ष हैं – आपातकाल का संवैधानिक एवं विधिक होना। आपातकाल भारतीय संविधान के अनुच्छेद – 352 के अनुसार लागू किया गया था और इसे संसद के दोनों सदनों द्वारा अलग-अलग एक महीने की समयावधि में संविधान में अधिकथित रीति से अनुमति प्रदान की गई थी। वहीं इंदिरा गांधी पूरे आपातकाल के दौरान देशवासियों को अपने संबोधन में यह समझाती रही कि आपातकाल एक अस्थायी अवधि के लिए लागू किया गया है। उनका कहना था कि जैसे ही परिस्थितियाँ सामान्य हो जाएगी, सभी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया दोबारा सामान्य कर दी जाएगी। देश की जनता को विश्वास में लेने के लिए आपातकाल की तुलना उन्होंने उस घटना से की जिसमें किसी छोटे बच्चे के बीमार पड़ने पर डाक्टर द्वारा दी गई कड़वी दवा मां न चाहते हुए भी बच्चे को खिलाती है। उन्होंने कहा कि चाहे बच्चा कितना भी प्यारा क्यों न हों आखिरकार बच्चे को ठीक करने के लिए कड़वी दवा खिलानी ही पड़ती है। इसीलिए विखंडनकारी शक्तियों से देश को बचाने के लिए आपातकाल रूपी यह कड़वी दवा परिस्थितिवश हमें देश को खिलानी ही पड़ी। प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा न दिए जाने के पक्ष में उन्होंने यह तर्क दिया कि इस्तीफा दिए जाने से उन ताकतों को बढ़ावा मिलता जो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिए खतरा उत्पन्न कर रही थी।

निस्संदेह  इंदिरा गांधी द्वारा देश पर आपातकाल लागू किये जाने के कदम का किसी भी प्रकार से समर्थन नहीं किया जा सकता है। इसे भारतीय लोकतान्त्रिक राजनीति के इतिहास में हमेशा काला अध्याय के रूप में याद किया जाता रहेगा। यह विधि की विडंबना ही हैं कि सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा गैर संवैधानिक एवं अलोकतांत्रिक तौर तरीकों को अपनाए जाने से भारत जैसे उदार लोकतान्त्रिक देश का  भविष्य खतरे में नजर आने लगा था परंतु भारतीय लोकतंत्र ने न केवल आपातकाल को बड़ी सहजता से आत्मसात कर लिया बल्कि यह आपातकाल के पश्चात एक नये रूप में सामने आया जिससे इसकी जड़ें और गहरी हो गई।

18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक आपातकाल को समाप्त घोषित कर लोकसभा को भंग कर दिया और नए चुनाव कराए जाने की घोषणा की। सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई कर दी गई और उन्हें स्वतंत्र रूप से नए निर्वाचन में भाग लेने की अनुमति दे दी गई। सभी निलंबित लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को फिर से बहाल कर दिया गया। प्रेस से सेंसरसिप को हटा दिया गया। देश में सभी राजनीतिक गतिविधियां सुचारू रूप से कार्यान्वित की जाने लगी। 16 मार्च, 1977 को देश में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराए गए। देश की जनता ने निर्वाचन में शामिल होकर आपातकाल पर अपना फैसला सुनाते हुए इसे अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। आपातकाल के केंद्र में रहे इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी अपने परंपरागत संसदीय क्षेत्र रायबरेली और अमेठी से चुनाव हार गए। एक परिपक्व लोकतान्त्रिक देश के सचेत मतदाताओं के रूप में अपना परिचय देते हुए भारतीय नागरिकों ने यह साबित कर दिया कि संविधान एवं लोकतंत्र से खिलवाड़ करने वाली निरंकुश शक्तियों को भारत जैसे उदार लोकतान्त्रिक देश में किसी भी शर्त पर सहन नहीं किया जा सकता है।

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)