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असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को चाहिए सामाजिक सुरक्षा

Mishra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

 25 मार्च को कोरोना विषाणु के  व्यापक प्रसार को थामने के लिए पूरे देश में लाक डाउन किया गया . इस आकस्मिक बंदी ने जन-जीवन को बुरी तरह से अस्त-व्यस्त कर दिया . लोग घरों में कैद हो गए और अपने संसाधनों का संयम के साथ उपयोग करते हुए कई तरह की पाबंदियों के बीच जीना शुरू किया. परंतु इस बंदी का सबसे घातक असर उन लाखों दिहाड़ी मजदूरों के ऊपर पड़ा जो मुम्बई , दिल्ली , कोलकाता, सूरत और अहमदाबाद जैसे महानगरों में छोटे-मोटे काम कर जीवन-यापन कर रहे थे. अचानक हुई बंदी ने उद्योग जगत पर तो ब्रेक लगाया ही गली मोहल्ले में रेहड़ी लगा कर या घरों में  सहायक के काम  की भी मनाही कर दी.  बहुत से मजदूर ऐसे भी हैं जिनको बकाया मजदूरी नहीं मिली . कुल मिला कर शहर तटस्थ हैं. अपने में मशगूल वे अपनी समृद्धि की सुरक्षा और उसकी बढोत्तरी की चिंता करने में लगे हैं . अपनी मजूरी के काम से हाथ धो बैठे मजदूरों को कुछ ही दिनों में खाने के लाले पड़ने लगे और  बंदी को लेकर अनिश्चय के कारण उनको कुछ नहीं सूझा और शहर का डेरा छोड़ उनके कदम अपने-अपने  गांवों  की दिशा में  बढ चले. वे जो भी साधन मिला उसीके सहारे चल दिए.  आगे क्या होने वाला है इसका कोई खाका उनके सामने न था , न कोई  जमापूंजी ही थी कि कोई ठोस विकल्प खोज पाते. इन भ्रमों के बीच वे वहीं अपनी पुश्तैनी जगह वापस जा रहे थे जिसे अच्छे अवसरों के लोभ में  कभी छोड़ दिया था .  बाद में श्रमिक एक्सप्रेस भी चली और कुछ जगह वायुयान से भी मजदूरों की घर वापसी हुई. यह दुर्भाग्यपूर्ण ही था कि मानवीयता को छोड़ यह सब राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच की राजनैतिक खींच-तान की अव्यवस्था के बीच हुआ. परंतु पूरा घटनाक्रम इन मजदूरों के लिए सामाजिक (अ!)सुरक्षा के प्रश्न को छेड़ता है.

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असंगठित या अनौपचारिक

 दिहाड़ी मजदूरी करने वाले श्रमिक भारतीय अर्थ व्यवस्था के बड़े अहं हिस्से हैं और उनका अनुपात भी बहुत बड़ा है. इसके बावजूद उनका महत्व आंकने और उनके लिए आवश्यक व्यवस्था करने की कोई सार्थक और प्रभावी व्यवस्था अभी तक नहीं बन पाई है. वे श्रमिक तो हैं पर ‘असंगठित’ ( अनआर्गनाइज्ड) या अनौपचारिक ( इनफार्मल) क्षेत्र के हैं . यानी उनकी पहचान अस्पष्ट है और उसी तरह उनके लिए उनके मालिकों के दायित्वों का प्रावधान भी अनिश्चित है. वे नौकर हैं पर किसके यह तंय नहीं है और इसलिए उनका जिम्मेदार भी कोई नहीं  है. वे आत्म निर्भर हैं और जीने मरने के लिए वे खुद ही अपने लिए जिम्मेदार हैं.  इस  बीच श्रम कानूनों में कई राज्यों  ने उत्पादन बढाने की दृष्टि से जो बदलाव किया उसके विस्तार में जांय तो पता चलता है कि मजदूरों को रोटी पाने भर की कमाई के लिए यानी सीमित या थोड़े लाभ के लिए अधिक घंटे खटना पड़ेगा. केन्द्र सरकार ने बीस लाख करोड़ रूपयों का आर्थिक पैकेज जारी किया पर इसमें भी काफी देर हुई. उस तक साधारण गरीब की पहुंच भी कोई आसान बात नहीं है. इस बात को दर्शाते एक कार्टून में एक किसान कह रहा है कि ‘ बीस लाख करोड़ में आने वाले कई शून्य अंतत: हमारे पास पहुंच ही जांयगे’ . प्रधानमंत्री द्वारा दिये गए आत्म निर्भरता के मंत्र  का अर्थ गरीब किस तरह से लगाए उसे मालुम नहीं है . आज सवाल यह भी उठ रहा है कि स्वास्थ और जीवन  और आर्थिक प्रगति के बीच चुनाव कैसे किया जाय.

 अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र के मजदूर नए सुधारों को शोषण का उपाय मान रहे हैं. पहले पता ही नहीं था कि सामाजिक सुरक्षा क्या होती है.  अब जो पता चला तो श्रमिक दुखी हो रहे हैं.  वस्तुत: श्रम विषयक जरूरी  दिशा निर्देश देर से चले और जो चले वे अपर्याप्त हैं. अब आवाजें आ रही हैं  कि कोविड जाने वाला नहीं है और उसके साथ ही जीना रहना होगा . उससे बच के रहना होगा . पर इस सीख का अर्थ सब के लिए अलग-अलग होगा क्योंकि गरीब अमीर दोनों का ‘रहना’ अलग-अलग होता है. भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद की मानें तो शहरों की मलिन बस्तियां और  ऐसी  रिहायशें विदेशी मूल के कोविड विषाणु के देश में प्रसार का कारण बन रही हैं. यह भी गौर तलब है कि गांव की तुलना में कोविड-19  की उपस्थिति शहरों में 1.09 गुनी अधिक है और मलिन बस्तियों (स्लम) मे 1.89 गुनी अधिक है. खबर यह भी है कि पिछले सप्ताह भारत कोविड के आंकड़ों में ब्रिटेन  से आगे निकल कर कोविडग्रस्त देशों में  चौथे नम्बर पर पहुंच गया.  कोविड का प्रभाव निश्चित रूप से बढ रहा है.

सामाजिक सुरक्षा

 उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत के केवल 9.3 प्रतिशत  श्रमिक ही (कुल 466 मिलियन में से ) सामाजिक सुरक्षा के दायरे में हैं. दूसरे शब्दों में 90.7 सोच भी नहीं सकते कि लोगों को नौकरी में क्या सुविधाएं आम तौर पर मिलती हैं. जी- 20 समूह के देशों में कहीं भी अनौपचारिक क्षेत्र का दायरा इतना विशाल  नहीं है. कहना न होगा कि यह वर्ग भारत को बड़ी अर्थ व्यवस्था  बनाने के लिए खासा महत्व रखता है. अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति जटिल होती रही है . आम तौर पर वे जीविका के स्रोत बदलते रहते हैं. यह उनकी अपनी जरूरत और श्रम के बाजार की जरूरतों या अवसरों पर  पर निर्भर करता है. वे एक काम छोड़ कर  दूसरा काम हाथ में ले लेते हैं , दिहाड़ी , भवन-निर्माण , खेती-किसानी , फल सब्जी आदि की रेहड़ी लगाना आदि के काम  वे मौसम के हिसाब से बदल बदल कर करते रहते हैं.  अभी तक इनके लिए व्यापक  सामाजिक सुरक्षा की कोई व्यवस्था विकसित नहीं हो सकी है . औपचारिक क्षेत्र  में पेंशन का क्षेत्र जरूर बढा है.  इस समय अनौपचारिक श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के बारे विधेयक पर विचार चल रहा है. इसका मसौदा अक्तूबर 2019 में प्रस्तुत हुआ था और संसद के मानसून सत्र में विधेयक को प्रस्तुत होना है. समी श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए जो मसौदा विचार हेतु बना है वह अधिक उदार होना चाहिए. भवन निर्माण के श्रमिक फंड  के लिए सेस एक राज्य में वे दूसरे में गए तो क्या होगा, उनके पंजीकरण और पोर्टबिलिटी आदि का मुद्दा भी सुलझाना होगा. ठेके के मजदूरों का जिक्र ही नहीं  है . व्यवहार में मुख्य नियोक्ता इनको अपने आंकड़ों में नहीं दर्शाता है  ऐसी स्थिति में इनकी सामाजिक सुरक्षा की क्या व्यवस्था होगी . वैसे तो सभी नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए और लोकतांत्रिक सरकार को भविष्य की भी चिंता करनी चाहिए. मसौदे में इस लक्ष्य को नजर अंदाज कर दिया गया है और पुराने नियमों  और कानूनों को मिला जुला कर एक खाका बनाया गया है. भविष्य मे जन संख्या की प्रवृत्ति को देखते हुए प्रावधान  जरूरी हैं.  कोविड -19 की महामारी ने श्रमिकों के जीवन  संघर्ष के कई अछूते आयामों को  उभार कर सबके सामने उद्घाटित किया है. आशा है विधेयक में ऐसे प्रावधान होंगे जो श्रमिकों के जीवन स्तर को सुधारने में सहायक होंगे न कि सोचने और कहने की औपचारिकता का निर्वाह करेंगे.

*यह लेखक के अपने विचार है।

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