Teachers Day 2024

Teacher’s Day-2024: शिक्षक की संस्था को पुनर्जीवित किया जाए: गिरीश्वर मिश्र

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Teacher's Day-2024: Pro Girishwar Misra

Teacher’s Day-2024: शिक्षा का महत्व सभ्य समाजों में सदा से रहा है। शिक्षित हो कर जीने का सलीका आता है और मानवीय संवेदना का भाव विकसित होता है। पशुता से मुक्ति के लिए विद्या पाने की इच्छा की गई और कहा गया कि विद्याविहीन मनुष्य पशु होता है। मनुष्य में पशुता शरीर की सीमित इच्छाओं की पूर्ति के साथ विवेक और संवेदना के अभाव को रेखांकित करती हैं। विद्या के संस्कार न हों तो आदमी नख-शिख और डील-डौल में शरीर से आदमी जैसा दिखता तो है पर उसके आचरण और व्यवहार में पशुता हाबी होने लगती है। ख़ास तौर पर हिंसा, द्वेष और अनधिकार दूसरों की चीज़ को हथियाना पशुता के प्रमुख  लक्षण कहे गए हैं।  

इसलिए कहा गया कि अज्ञान दुखदायी होता है और अज्ञानी आदमी को जीवन में तमाम तरह के कष्टों का सामना करना पड़ता है। दूसरी ओर ज्ञान पृथ्वी पर सब चीजों से अधिक पवित्र है और उसे पाकर दुखों से छुटकारा मिलता है। उपनिषद कहते हैं ज्ञान से ही आदमी को मुक्ति मिलती है: ऋते ज्ञानान्न मुक्ति: । ज्ञान न केवल सही राह दिखाता है बल्कि ग़लत राह पर जाने से बरजता भी है। ग्ययन से मिलने वाली उचित और अनुचित के विचार की शक्ति सही निर्णय लेने में सहायक होती है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि किसी सभ्यता की प्रगति उसकी ज्ञान की पूँजी (नोलेज कैपिटल) से आंकी जाए।

इसे ध्यान में रख कर यह आवश्यक माना गया कि शिक्षा को स्वच्छंद न रहने दिया जाय। ज्ञान, विद्या और शिक्षा  को मानुष भाव की स्थापना, रक्षा और संवर्धन के लिए आवश्यक मानना गया। शिक्षा की पुख़्ता व्यवस्था के लिए उसका संस्थागत रूप बनाना अगला कदम था । वाचिक आदान-प्रदान के साथ पुस्तकें तैयार होनी शुरू हुई, विद्यालय बने और विद्यालय जाना सभ्य जीवन का अहं हिस्सा बन गया।

इतिहास गवाह है कि सभ्यता का यह हस्तक्षेप कृत्रिम और अतिरिक्त होते हुए भी बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। शिक्षा की इस संस्था की मुख्य धुरी के रूप में गुरु या अध्यापक की भूमिका निर्धारित की गई। गुरु को शिक्षा प्रक्रिया का केंद्र-विंदु बनाया गया जो शिक्षा के उद्देश्य, उसकी विषय-वस्तु तथा उसके उपादान आदि सब को निर्धारित करता था। यह सब करने के लिए उसे आवश्यक स्वतंत्रता और सुविधा दी गई।गुरु की संस्था में समाज का भरोसा विकसित हो गया। भारत में प्राचीन गुरुकुलों और गुरुओं की लम्बी ऋंखला रही है। राम के गुरु वशिष्ठ, कृष्ण के सान्दीपनि और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य प्रसिद्ध पौराणिक चरित्र हैं। देश के निर्माण में चाणक्य जैसे गुरुओं की भूमिका का अत्यंत प्राचीन इतिहास है।

भारत में गुरुओं की अटूट परम्परा में अगणित नाम हैं । ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के कुछ प्रमुख नाम हैं याज्ञवल्क्य, यास्क , कपिल, कणाद, व्यास, पाणिनि, उदयन, चरक, सुश्रुत, पतंजलि, शंकराचार्य, अभिनवगुप्त, नागार्जुन, वसुबंधु, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट तथा हेमचंद्र। इन लोगों ने ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में गुरु परम्परा की अमिट छाप छोड़ी है जो अनेकानेक ग्रंथों से भलीभाँति प्रमाणित है । व्यक्ति की जगह परम्परा प्रमुख रही है। सिख गुरु परम्परा स्वयं में एक अद्भुत उपलब्धि है। गुरुओं की यह परम्परा काल के थपेड़ों के बीच कुछ उतार-चढ़ाव के साथ प्रवहमान रही है।

देश-काल में बदलाव के साथ उसके रूप भी बदलते रहे हैं। गुरु गोरखनाथ, सद्गुरू कबीर, गोस्वामी तुलसीदास तथा कविवर रहीम आदि की कविता में भी वही चिरंतन गूंज मिलती है जिसके उत्स वेदों में दिखते हैं । स्मरणीय है कि ज्ञान की हज़ारों वर्ष लम्बी यात्रा गुरु परम्परा से ही हम तक पहुँची है। जीवन में आगे बध पाने वाले सभी लोगों ने जीवन-यात्रा में गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया है। परा और अपरा, लोक और आध्यात्मिक सब प्रकार के ज्ञान को साधने में गुरु ही सहायक होता है।

गुरु और विद्यार्जन के केंद्र विद्यालय को समाज की मुख्य संस्था के रूप में अपनाया गया और उसे भरपूर समर्थन मिलता रहा। जीवनोपयोगी ज्ञान के लिए गुरु के निकट प्रशिक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण था। गावों और शहरों में भी विद्यालयों की अच्छी व्यवस्था को लेकर अंग्रेजों की आरम्भिक रपट विस्मयजनक है और कदाचित इसकी शक्ति को समझ कर ही उन्होंने  भारतीय शिक्षा की कमर तोड़ने का षड्यन्त्र उन्होंने रचा और उनको आशातीत सफलता भी मिली। शिक्षा की पाश्चात्य व्यवस्था भारतीय जनों को औपनिवेशिक परिस्थितियों में नई, आकर्षक और धनोपार्जन में सहायक दिखी। उसे एक बार जो अपनाया गया तो उसके चंगुल से हम आज तक बाहर नहीं निकल सके। धीरे-धीरे गुरु की स्थिति दूसरी नौकरियों जैसी होती गई। उसकी गरिमा में ह्रास हुआ। 

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गुरु जनों के भी जाति और वर्ग बनते गए। उनके आचरण में भी कमज़ोरियाँ आती गईं। शिक्षा संस्थाओं के भी आज कई स्तर हैं और अध्यापकों के वेतन और अन्य सुविधाओं में भी बड़ा फ़र्क़ है । कार्य की संस्कृति भी भिन्न है। आइ आइ टी, इंडियन इंस्टिच्यूट आव साइंस, आइ आइ एम आदि संस्थाओं को स्वायत्त ढंग से काम करने अवसर है । फलतः वहाँ पर गुणवत्ता का स्तर बना हुआ है जब कि अन्य विश्वविद्यालय प्रश्नांकित हो रहे हैं। यह दुर्भाग्य है कि शिक्षकों और सुविधाओं अनदेखी करते हुए संस्थाएँ दनादन खुल रही हैं, हालाँकि उनकी संख्या सभी भी नाकाफ़ी है। आज प्रवेश न पाने वाले छात्र प्रवेश पाने वालों से अधिक हैं और उनमें बहुत से योग्य विद्यार्थी भी हैं।

निजी क्षेत्र में भी शिक्षा के लिए द्वार खुले हैं पर सुविधा, स्वायत्तता और गुणवत्ता की दृष्टि से वहाँ की स्थिति असंतोषजनक है। साथ ही वे बड़े मंहगे भी हैं। इन के साथ ही कोचिंग और ट्यूशन की संस्थाओं का जाल भी पसरता जा रहा है और आज उनकी वैसाखी पर ही अकादमिक प्रतियोगिता में सफलता का दारोमदार है। उनकी स्थिति कितनी ख़तरनाक है यह विगत दिनों हुए हादसों से अनुमान लगाया जा सकता है। शिक्षा संस्थाओं में औपचारिक शिक्षा की अपर्याप्तता चिंता जनक हो रही है।

 विद्यालयीय स्तर की शिक्षा डराने वाली हो रही है। शिक्षक-प्रशिक्षण के नाम पर अभी हम लोग प्रभावी कदम नहीं उठा सके हैं। इन सबके पीछे ज्ञान के अतिरिक्त राजनीति, भ्रष्टाचार और अवांछित हस्तक्षेप प्रमुख कारण हैं। अध्यापन अब रुचि और योग्यता का प्रश्न नहीं रहा। अब कोई भी अध्यापक हो सकता है बशर्ते व्यवस्था में पैठ हो। शिक्षा की गुणवत्ता के साथ नीतिगत स्तर पर भी लगातार समझौते हो रहे हैं। आज सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक स्तर की शिक्षा में बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि की लगातार गिरावट चिंता का विषय हो रही है।

इन सबके मूल में शिक्षकों की समुचित भागीदारी की कमी है चाहे वह योग्यता और कौशल की कमी के कारण हो या फिर उनके मन में पल रहे असंतोष के चलते हो। नौनिहालों यानी समाज के भविष्य को गढ़ते तराशते इन शिक्षकों के शोषण की बात सर्वविदित है । उनकी स्थिति को सुधारने पर सरकारों को वरीयता से विचार करना होगा। शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता देश की आत्मा के साथ धोखा है।

यह भी गौर तलब है कि आधुनिक युग में ज्ञान में विविधता आई है और शिक्षा पाने की प्रक्रिया तकनीकी प्रगति की कृपा से अधिकाधिक विमानवीकृत होती जा रही है और उसके प्रयोजन आर्थिक लाभ तक सिमटते जा रहे हैं। मनुष्य बनने-बनाने के व्यापक उद्देश्य विस्मृत होते जा रहे हैं। इसके साथ ही शिक्षा से जुड़े संस्थान व्यापार और उद्यमिता के केंद्र होते जा रहे हैं। इनके बीच गुरु का विचार और संस्था को नए आयाम मिल रहे हैं। कई जगह यंत्र-शिक्षक (रोबोट) भी कक्षा में दाखिल हो रहा है।

शिक्षा का परिदृश्य तेज़ी से बदल रहा है। इंटरनेट की बदौलत आन लाइन सीखने की प्रक्रिया गति पकड़ रही है। अब मोबाइल और लैप टाप संचार, संवाद, लेखन, परीक्षा आदि को नया आयाम दे रहे हैं। कक्षा में स्मार्ट बोर्ड लग रहे हैं जो कम्प्यूटर-स्क्रीन सरीखे काम कर रहे हैं। यह सब एकतरफ़ा नहीं है। मनुष्य की पकड़ बढ़ने के साथ खुद मनुष्य पर यंत्र की पकड़ भी बढ़ रही है।

स्मरणीय है कि गुरु शब्द के जो भी अर्थ किए जाते हैं वे हमारा ध्यान गुरुता, गांभीर्य और श्रेष्ठता जैसे उदात्त भावों के स्रोत की ओर ले जाते हैं । गुरु वह होता जो ज्ञान के अंजन से शिष्य की आँख खोल देता है। वह अंधकार दूर कर प्रकाश की ओर ले जाने वाले माध्यम होता  है। स्मरणीय है कि गुरु को एक ग्रह (जूपिटर) के रूप में सौर मंडल में भी स्थान मिला  है। वह संभवत: सबसे बड़ा ग्रह है और भारतीय परम्परा में गुरु ग्रह का देवता देवगुरु बृहस्पति कहे गए हैं। ज्योतिष की मानें तो व्यक्ति के जातक में ग़ुरु की स्थिति व्यक्ति के लिए ज्ञान, वैभव, सुख, पद और समृद्धि के साथ जुड़ी हुई है।

संगीत में वर्ण भी लघु और गुरु होते हैं। गुरु शब्द और शिक्षक के रूप में सर्व स्वीकृत है। इसी अर्थ में यह अंग्रेज़ी के शब्द कोश में भी शामिल हो गया है। शिक्षा देने और पाने को संधि के रूप में समझा गया है जहां गुरु और शिष्य के बीच अटूट सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को बताते हुए उपनिषद में गुरु को पूर्व-पक्ष और शिष्य को उत्तर-पक्ष के रूप में पहचाना गया है। गुरु का प्रवचन भी संधान के रूप में निरूपित किया गया है।

अध्यात्म के क्षेत्र में गुरु की महिमा सभी ने बखानी है। सद्गुरु की करुणा से ही शिष्य का मार्ग प्रशस्त होता है। जब शिक्षा पाने के बाद दीक्षांत के अवसर पर ‘गुरुर्देवो भव’ का निर्देश गुरु देता है और स्वाध्याय से प्रमाद न करने की सीख देता है तो यह भी कहता है कि मेरे अच्छे (अनवद्य) कर्मों का ही पालन करो और जो उससे जो अलग है (यानी आचार की कसौटी पर ग़लत हैं) उसकी उपेक्षा करो। व्यवहार के स्तर पर शील और आचरण पर बार-बार बड़ा ज़ोर दिया गया है। भारतीय समाज में अभी भी लोग अपने गुरु पर बड़ा भरोसा करते हैं । गुरु से ज्ञान और आशीर्वाद और मार्ग-दर्शन पाने के लिए लोग तत्पर रहते हैं। आज भी इस तरह के विमर्श की झलक कभी-कभी मिल जाती है। सारे बदलावों के बावजूद गुरु की संस्था को पुनर्जीवित कर सशक्त बनाने के अलावे कोई चारा नहीं है। 

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