Research Project the ministry of education

Research Project the ministry of education: बीएचयू के शोधार्थिओं को मिला शिक्षा मंत्रालय का शोध परियोजना

Research Project the ministry of education: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय करेगा कैमूर पर्वत श्रंखला में प्रयुक्त हेमेटाइट के प्रयोग में निहित प्राचीन ज्ञान प्रणाली का वैज्ञानिक अध्ययन

रिपोर्ट: डॉ राम शंकर सिंह

वाराणसी, 22 दिसंबरः Research Project the ministry of education: भारत में शैलकला का अध्ययन 1867 में इसकी खोज के बाद से शुरू हो गया था। हालांकि, यह केवल खोज, वैज्ञानिक उपकरणों के उपयोग के बिना प्रारंभिक प्रलेखन और प्रकाशनों तक ही सीमित है। शायद यही कारण है कि शैलकला विरासत के अध्ययन में दो महत्वपूर्ण मुद्दों को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है।

पहला, वर्णक (pigment या रंग) बनाने के पीछे की गतिविधियाँ जैसे कि रंगों की प्रकृति, उनकी रासायनिक संरचना, उनके माध्यमों (जैविक और अजैविक), उपयोग की जाने वाली विशेषता, तकनीक और उन रंगों को बनाने में उपयोग किए जाने वाले प्राकृतिक और कृत्रिम माध्यमों की खोज नहीं हुई है, और दूसरा, इन शैलकला की तिथि को जानना, जो अब तक केवल सापेक्ष कालनिर्धारण पद्धति के माध्यम से किया जा रहा है इस ओर वैज्ञानिक कालनिर्धारण विधियों जैसे एएमएस, यूरेनियम श्रृंखला इत्यादि के अतिरिक्त और नवीन संभावनाओं की तलाश करना है।

शैलकला में हेमेटाइट के उपयोग पर अधिक वैज्ञानिक प्रयास अबतक नहीं किए गए हैं और कैमूर पर्वत श्रृंखला की जनजातियों और अन्य स्थानीय निवासियों के बीच हेमेटाइट के निरंतर उपयोग का कारण स्पष्ट नहीं है। इस दिशा में अंतर्विषयक अध्ययन करने हेतु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अग्रणी भूमिका निभाने की ओर अग्रसर है।

भौमिकी विभाग, विज्ञान संस्थान, के प्रो. एन. वी. चलपति राव तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति तथा पुरातत्व विभाग, कला संकाय, के डॉ. सचिन कुमार तिवारी को इस विषय पर अध्ययन करने के लिए एक परियोजना स्वीकृत की गई है। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, की पहल भारतीय ज्ञान प्रणाली के तहत इस अध्ययन को वित्त पोषित किया जाएगा। दो वर्ष की इस परियोजना के अंतर्गत उत्तर प्रदेश तथा बिहार की कैमूर श्रृंखला में अध्ययन किया जाएगा।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भारतीय, प्राचीन काल से ही, शैलकला निर्माण में अग्रणी थे। इनमें से कई पारंपरिक तकनीकें लुप्त होने के कगार पर हैं। प्रो. राव तथा डॉ. तिवारी ने विश्वास जताया कि इस परियोजना के माध्यम से वे शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों को “हेमाटाइट के सन्दर्भ में शैलकला में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की प्रोसेसिंग” के बारे में भारतीय ज्ञान की विशेषज्ञता से तो अवगत करा ही पाएंगे, साथ ही साथ इस विषय में दुनिया को ‘प्राचीन परम्परागत भारतीय तकनीक’ से भी रूबरू कराएंगे।

हेमेटाइट सबसे महत्वपूर्ण वर्णक खनिजों में से एक है। हेमेटाइट नाम ग्रीक शब्द “हैमाटाइटिस” से है जिसका अर्थ है “रक्त जैसा लाल।” यह नाम हेमेटाइट के रंग से उपजा है, जिसे तोड़ने या रगड़ कर महीन पाउडर बनाने पर इसका रंग रक्त जैसा लाल होता है। आदिम लोगों ने पता लगाया था कि हेमेटाइट को रंग के रूप में इस्तेमाल करने के लिए पीस कर और घिसकर एक तरल के साथ मिलाया जा सकता है। हेमेटाइट प्राचीन चित्रकला के प्रमुख स्रोतों में से एक था।

भारतीय संदर्भ में प्रायोजित यह परियोजना एक महत्वपूर्ण कदम होगी, क्योंकि इससे न केवल विकास के प्रारंभिक चरण में शैल कला की अभिव्यक्ति के संदर्भ में उद्देश्यों, तकनीकों को जानने और समझने में सक्षम हुआ जा सकेगा, बल्कि यह अध्ययन संग्रहालयों, संस्थाओं संगठनों व लोगों को भारत के इस हिस्से में इस प्राचीन भारतीय ज्ञान प्रणाली से अवगत कराएगा।

परियोजना के तहत अध्ययनकर्ता भारतीय शैलकला में विशेष रूप से हेमाटाइट सामग्री के उपयोग के संबंध में उनकी रासायनिक संरचना और संरचना, माध्यमों (जैविक और गैर-कार्बनिक) और बाइंडरों के प्रकार (प्राकृतिक और कृत्रिम) के लिए वर्णक का विश्लेषण करेंगे साथ ही साथ पारिस्थितिक क्षेत्र में वर्णक के स्रोत की खोज का पता लगाने का प्रयास करेंगे।

वे विंध्य क्षेत्र के आदिवासी समाज में लुप्त हो रही रंगों के निर्माण की पद्धतियों को समझने, आधुनिक आदिवासी समूहों में रंग निर्माण के पीछे के कारण, तकनीक और विज्ञान को समझने तथा प्राचीन काल में चित्रों के लिए उपयोग की जाने वाली सुरक्षा तकनीकों को समझने और वर्तमान में ऐसी कला को दोहराने के लिए उसकी पुनर्स्थापना के प्रयास पर अध्ययन करेंगे।

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