Shri Krishna Janmashtami: पूर्णावतार श्रीकृष्ण
Shri Krishna Janmashtami: श्रीकृष्ण जितने अलौकिक, अतिमानवीय और आश्चर्यजनक रूप से विराट हैं उतने ही सामान्य लोक में रचे-पगे लघुता, सरलता और सहजता को स्वीकार करने में भी अतुलनीय हैं। सूक्ष्म से विराट तक की ऐसी व्याप्ति वाले लोक नायक का कोई और उदाहरण खोजे नहीं मिलता है। पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की लीलाएँ हमारे सामने सूक्ष्म और विराट की अनोखी आँख-मिचौली करती हैं जिसके चुम्बकीय आकर्षण में खिंचे बिना कोई बच नहीं सकता। जन्म से लेकर बाल्यावस्था, कैशोर्य, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था से होते हुए लीला-संवरण तक का समग्र कृष्ण-चरित हज़ारों वर्षों से अनगिन सहज कौतूहलों का आश्रय बना हुआ है। यह मोहक और आकर्षक युग-स्वप्न एक जादू की तरह परिपूर्णता की कसौटी बन कर हमारे सामने उपस्थित है।

पूर्ण तो सर्वसमावेशी होना ही चाहिए, तभी तो वह पूर्ण हो सकेगा। यदि विविध तत्व, वे सब भी जो परस्पर विरुद्ध हों, उसमें रचना में न समा सकें तो फिर पूर्णता कैसे आएगी ? सबको सम्मोहित करने वाले पूर्णावतार श्रीकृष्ण उन तमाम प्रकट अन्तर्विरोधों के बीच भी अविचल और अच्युत बने रहते हैं । वे मर्यादाओं का निर्वाह करते हैं, उन्हें तोड़ते हैं, और बड़ी मर्यादा बनाते हैं और फिर उसका भी अतिक्रमण करते हैं। उन्हें कभी कहीं किसी तरह का विराम नहीं है।
श्रीकृष्ण विचार और कर्म की दुनिया में एक क्रांति ले आते हैं और धर्ममूलक संस्कृति की स्थापना के लिए एक गत्यात्मक प्रतिमान उपस्थित करते हैं। ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, वैराग्य और मोक्ष जैसे गुणों के समन्वय के साथ श्रीकृष्ण को भगवान कहा जाना स्वाभाविक है।
सच कहें तो दिव्य जन्म और कर्म वाले श्रीकृष्ण अखंड जीवन की साधना के निकष के रूप में आते हैं। अक्सर देवता अनोखे होते हैं पर श्रीकृष्ण एक ऐसे देव हैं जो लगातार मनुष्य बनने में संलग्न हैं। निर्लिप्त भोगी, त्यागी और योगी के रूप में वे असम्भव से कार्य करते रहते हैं। उनकी भूमिकाएँ अपनी अछोर विस्तृति से चमत्कृत करती हैं। यदि वे आकाश के देवता की जगह धरती के देवता की प्रतिष्ठा करते हैं तो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आगंतुक ब्राह्मणों के पैर धुलाने और जूठी पत्तल बटोरने का काम भी प्रेम और प्रसन्नता के साथ करते हैं। कृष्ण का पूरा जीवन ही नाना प्रकार के सुखों-दुखों के बीच समत्व के योग और स्थितप्रज्ञ के शिखर की राह पर अपने को आगे ले चलने वाला उद्यम लगता है।
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कारागार में जन्म, दूसरे के घर में शैशव, बाल्यावस्था से ही शत्रुओं के आक्रमण का निरंतर प्रतिकार, प्रिय जनों को छोड़ कर भी अपना आत्म-बल बनाए रखना, लोक-हित के लिए किसी भी सत्ता से टकराने की शक्ति और जन-सेवा की तत्परता, सबको जोड़ते रहने की प्रवृत्ति, सबको यथायोग्य आदर देने के साथ व्यापक जन जीवन के बीच लोक के साथ जुड़ने जैसे बहु आयामी कार्य करने की सामर्थ्य अकेले सिर्फ़ श्रीकृष्ण में ही दिखाई पड़ती है।
लोक में रमते हुए कृष्ण लोकोत्तर गुणों के आगार हैं। अपनी अद्भुत एवं चमत्कारपूर्ण लीलाओं, प्रिय जनों के माधुर्यपूरित प्रेम से मंडित, मधुर मुरली की तान से तीनों लोकों के निवासियों को आकर्षित करने वाले और असाधारण रूप लावण्य के स्वामी श्रीकृष्ण भागवत धर्म के ऐसे उपदेष्टा हैं जिनकी चरण धूलि को पाने वाले स्वर्गादि कुछ भी नहीं चाहते, उनको मोक्ष पाने की भी इच्छा नहीं होती।
पूर्णावतार श्रीकृष्ण में सत्, चित् और आनंद तीनों की लीलाएँ प्रकट हुई हैं जो ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी रचती रहती हैं । वे मानुषतनु धारी नारायण योगेश्वरेश्वर हैं । योग की शक्ति से स्थूल और सूक्ष्म शरीर धारण करना सम्भव हो जाता है क्योंकि तपश्चर्या से ‘जीवनमुक्त’ की स्थिति में होने के कारण वे सामान्य भौतिक बंधनों से नहीं बंधते। श्री कृष्ण निर्लिप्त, जितेंद्रिय और परम ज्ञानी हैं । वे जाने कितनों से किन-किन परिस्थितियों में जुड़े पर निस्संग भाव से।

श्रीमद्भागवत में बड़े ही सुंदर ढंग से यह बात कही गयी है : जिनके चरण कमल के प्रभाव से योगी लोग कर्म के बंधन से मुक्त हो कर संसार को पवित्र करते हुए विचरण करते हैं, केवल माया से शरीर धारण करने वाले उस निराकार परमात्मा को बंधन कैसे लग सकता है ?कृष्ण अपनी दिव्य प्रकृति को स्पष्ट करते हुए गीता में कहते हैं कि‘ यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी आत्मा और सर्व भूतों का ईश्वर हूँ, तथापि मैं अपनी प्रकृति को वश में कर के अपनी ही शक्ति से जन्म ग्रहण करता हूँ।
श्रीकृष्ण की लोक-यात्रा में आने वाली चुनौतियों का सामना करते हुए हम अनेक अवसरों पर सूक्ष्म से विराट की अभिव्यक्ति मिलती है। श्रीकृष्ण से जुड़ी अनेकानेक घटनाएँ भारतीय लोक-मानस में निरंतर गूंज रही हैं। यशोदानंदन, गोपाल, गोविंद, गिरिधर, गोपीकृष्ण, बंशीधर, सुदर्शनधारी, पार्थसारथी आदि के विभिन्न रूपों में की गयी प्रत्येक लीला मन में कुछ इस तरह बैठ गई है कि अलौकिक लगती ही नहीं क्योंकि वह लीला है, खेल है। वैसे भी मनुष्य अपनी शारीरिक सीमा का अतिक्रमण करना चाहता है और करता भी है। श्रीकृष्ण एकाग्र संलग्नता वाले मन की उत्कट उछाल के साथ यही करते हैं ।
श्रीकृष्ण तत्व विलक्षण सक्रियता के साथ लोभ, मोह, ईर्ष्या, भय की सारी सीमाओं को तोड़ता-फलाँगता मुक्त करता विराट तक पहुँचा देता है। माता-पिता, घर-बार, प्रेमी(भक्त)-प्रेमिकाएँ कहीं कोई एकल सत्ता का प्रभुत्व नहीं दिखाती और पर को अपर, अन्य को स्वकीय, एक से अनेक, सूक्ष्म से विराट की ओर अग्रसर घटनाक्रमों वाली लीला पराए को सुखी करने वाली और अपने से ज़्यादा महत्व देने वाली है। पूर्णता की यात्रा का सोपान बनी कृष्ण की गाथा दान, दक्षता, विद्या, वीरता, विनय, धैर्य, संतोष और दूसरों के भरण-पोषण की क्षमता जैसे मानवीय गुणों का कीर्तिमान स्थापित करती है।
लोक पुरुष श्रीकृष्ण ने निषेध, अपमान, राज-मद, दर्प और अहंकार का सतत प्रतिकार करते हुए अपने युग को नए युग में ढाला। उनकी लीला में लगता विराटता का ही एक दूसरा रूप होती है। श्रीकृष्ण सर्वात्मा हैं – वासुदेव: सर्वम् और विभक्त बंटी हुई चीजों में जो एक सूत्रता है उसे देखने की – अविभक्तं विभक़्तेषु वाली देखने की दृष्टि है उसके प्रवक्ता हैं। वह सभी प्राणियों में एक अव्यय भाव देखते हैं – सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। इस कृष्ण भाव की कामना लघुता में विराटता का दर्शन कराती है।
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