India 79th Independence Day: भविष्य का भारत: स्वायत्त और स्वावलंबी !
India 79th Independence Day: पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ! अपनी अमूल्य कृति “रामचरितमानस “ में गोस्वामी तुलसीदास जी की यह उक्ति प्राणि मात्र के जीवन की एक प्रमुख सच्चाई को दर्शाती है कि दूसरे के अधीन रहने वाले को सपने में भी सुख नसीब नहीं होता । पराधीन रहते हुए भारत वर्ष ने लगभग हज़ार वर्ष की लंबी अवधि तक अनेकानेक कष्ट सहे और यातनाएँ झेलीं । भारत की पहचान बदलने के लिए न सिर्फ़ नाम ही बदला गया , पहले हिन्दुस्थान फिर इंडिया , बल्कि उसके मानस , संस्थाओं और संस्कार सबको नए साँचे में ढालते रहने की कोशिश जारी रही । तरह-तरह के शोषण द्वारा विदेशी आक्रांताओं ने भारत को विपन्न बनाने की लगातार कोशिश की । अंग्रेज़ों ने उपनिवेश बना कर हद ही कर दी। उन्होंने भारत का भरपूर दोहन किया और शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

अपने ही देश में ख़ुद को अस्वीकृत (रिजेक्ट ) और हाशिए पर भेज कर अप्रासंगिक बनाये जाने की असह्य पीड़ा ने भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार किया । यह भारत की अदम्य जिजीविषा ही थी जो जननी और जन्मभूमि से जुड़ाव के साथ लगभग सात हज़ार वर्षोसे भारत की सभ्यता को निरंतर प्रवहमान किये हुए थी। इसी क्रम में राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत भारतीयों में अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्त हो कर देश में स्वराज्य स्थापित करने की तीव्र अभिलाषा जगी ।इस दौर में वैश्विक राजनैतिक परिस्थितियों ने भी साथ दिया । भारत माता की वत्सल , सुखद और शस्य -श्यामल छवि ने इस भूमि की उस पुण्य स्मृति को पुनर्जीवित कर दिया जो कभी देवताओं के लिए भी स्पृहणीय मानी गई थी ।
देश प्रेम के प्रगाढ़ भाव का ही परिणाम था कि अनेक वीर सपूतों ने स्वतंत्रता की बलि वेदी अपने हंसते हंसते अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया। उन्होंने स्वतंत्र भारत का स्वप्न देखा और उत्साह-त्याग की भावनाओं के साथ स्वराज पाने के एकल ध्येय के लिए आम जनों में उत्साह को जगाया । कई वीरों और नेताओं ने करो या मरो के जज्बे से देश के विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीयता के प्रति समर्पण का आह्वान किया । कई तरह के राजनैतिक उतार- चढ़ाव के बीच चले संघर्ष के फ़लस्वरूप देश को सन 1947 में अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतंत्रता मिली.
स्वतंत्रता की प्राप्ति राष्ट्रीय जीवन में एक प्रस्थान विंदु होना चाहिए था जहाँ से स्वदेशी कल्पनाओं वाली संकल्पना वाले भारत का सृजन शुरू होता पर नियति ऐसी कि स्वतंत्रता भारत को खंडित कर के दी गई । विभाजन एक भीषण हिंसक मानवीय त्रासदी बन गया जिसके प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम दूरगामी प्रभाव वाले साबित हुए । स्वतंत्र देश की बागडोर जिन हाथों में सौंपी गई उनमें जनता ने भलीभाँति एक लंबे अरसे तक अविचल निष्ठा के साथ अपना असंदिग्ध भरोसा जताया था ।
बीता समय साक्षी है कि उनकी सोच , योजना और योजना का कार्यान्वयन की राह स्वराज और स्वदेशी के भारतीय सपनों से कदाचित दूर होती गई । हम सर्वोदय के लक्ष्य के ज़्यादा करीब नहीं पहुँच सके । कुछ बदलाव ज़रूर आए और उनके कुछ अच्छे परिणाम भी हुए परंतु आत्मनिर्भरता, उन्नति और एकजुट हो कर देश के कल्याण की कोशिश मद्धिम पड़ गई । उसकी जगह विश्वयारी की बतकही में शामिल होते हुए समग्र भारत की प्रगति का प्रश्न दृष्टि से ओझल होता गया । गरीबी , अस्वास्थ्य, अशिक्षा दूर करने में अधिक प्रगति न हो सकी और सामाजिक मूल्यों का क्षरण बढ़ता गया ।
आत्मलीन और संकुचित दृष्टि कुछ इस तरह पसरी कि चार दशक बीतते बीतते सन 1984-1989 के दौरान देश के प्रधान मंत्री रहे युवा राजीव गांधी को यह स्वीकार करना पड़ा कि सौ पैसे में से पंद्रह पैसे ही अपने लक्ष्य तक पहुँच कर वास्तविक हितग्राही को मिल पाता है । शेष को बिचौलिये ही डकार जाते हैं । आगे चल कर हालत यह हो गई कि सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा । फिर आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ । साथ ही घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़े । इस जटिल पृष्ठभूमि में हुए 2014 के लोक सभा के चुनाव बड़े निर्णायक साबित हुए ।
जनता परिवर्तन चाहती थी और स्पष्ट बहुमत से भाजपा को शासन की जिम्मेदारी सौंपी । तब से लगातार आधार-संरचना, उत्पादन, निवेश और निर्यात आदि विभिन्न मोर्चों पर कमर कसी गई । तकनीकी प्रगति पर जोर दिया गया । योजनाओं का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने का प्रयास तेज किया गया । भ्रष्टाचार पर लगाम किसी गई। शिक्षा, क़ानून आदि के क्षेत्रों में कुछ जमीनी सुधार भी शुरू हुए । बाद के दो चुनावों में भी वही दल सरकार बनाने में कामयाब हुआ यद्यपि बाद के चुनाव में समर्थन कुछ कम मिला ।
अब देश ने अमृत काल की यात्रा शुरू की है । स्वतंत्र भारत 2047 में शताब्दी मनाएगा । नवोदित भारत अपने लिए नया मार्ग बना रहा है । विगत वर्षों में भारत विश्व समुदाय में अपनी स्वतंत्र और सशक्त पहचान स्थापित करने के लिए सक्रिय हुआ । अब उसकी उपस्थिति की नोटिस ली जाती है और उसकी आवाज भी सुनी जाती है । जनहित की अनेक योजनाएँ चलाई जा रही हैं जिनको ग़रीबों , किसानों और मज़दूरों तक पहुँचाया जा रहा है। डिजिटल अर्थव्यवस्था की पहल एक ठोस उपलब्धि है जिसने व्यापार व्यवसाय को पारदर्शी , सरल और सुभीता वाला बनाया है।। अतिशय ग़रीबी की स्थिति में निश्चित रूप से सुधार हुआ है। बहुत सारे पुराने क़ानून ख़त्म किए गए हैं । भारत की सैन्य ज़रूरतों में इज़ाफ़ा हुआ है । उसके समाधान के लिए भारत में ही इनके लिए साजो सामान बनाने की पहल हो रही है। शिक्षा में सुधार की महत्वाकांक्षी नीति अमल में लाई जा रही है।
दुर्भाग्य से भारत के पड़ोसी देशों के हालात टूटने बिखरने से अस्थिरता वाले हो गये और लोकतांत्रिक गतिविधियाँ कमजोर पड़ती गईंऔर उनकी जगह अराजक प्रवृत्तियाँ जोड़ पकड़ने लगीं ।पाकिस्तान , बंगला देश और चीन की सीमाएँ सतत चुनौती बनती रहीं और उनकी ओर से घुसपैठ , आतंक और अवांछित सैन्य कारवाई को अंजाम भी दिया जाता रहा है । इसलिए सामरिक तैयारी ज़रूरी हो रही है। रक्षा उत्पादों का संवर्धन और आवश्यक उपकरणों की ख़रीदी की जा रही है।

आंतरिक राजनैतिक परिवेश में तुष्टिकरण का बोलबाला हो रहा है। साथ ही झूठ और फरेब भी बढ़ा है जिसके चलते अब नेताओं पर भरोसा करना कठिन हो रहा है । भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दल और जातिगत आधार को लेकर आए दिन नए समीकरण बनते बिगड़ते हैं। विचार धारा की जगह नाटकीयता और कुछ कृत्यों ( रिचुअल ) तक सिमट कर रह जाना सबको खल रहा है । अब विपक्ष संसद में विचार करने के बदले किसी न किसी तरह उसकी कारवाई ठप करने की फ़िराक़ में रहता है। लोकतंत्र में क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय और दलगत विविधता को संभालना आज एक बड़ी चुनौती सिद्ध हो रही है। ऐसे में धन बल और बाहुबल का उपयोग बढ़ने लगा है और अवांछित लोगों को भी राजनीति में प्रवेश मिलने लगा है। लोक तंत्र और उसकी संस्थाओं को सुदृढ़ करना ही एक मात्र विकल्प है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशाल जनसंख्या के हिसाब से प्रभावी कदम उठाने होंगे । तभी यह युवा देश उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा।
इन सबके बावजूद भारत देश की जिजीविषा अप्रतिम है। औपनिवेशिक राज , विभाजन, युद्ध और आतंक सभी के साथ आगे बढ़ते हुए भारत स्वायत्त देश है । वह आज किसी अन्य देश के प्रति समर्पित नहीं है। डिजिटल अर्थ व्यवस्था के साथ अनेक सुधारों की शुरुआत हुई है और भारत पांचवीं अर्थ व्यवस्था बन चुका है। वह अपनी राह किसी के कहे के अनुसार नहीं बल्कि अपने विवेक से चुनता है। भारत जग रहा है और यह अनुभव कर रहा है कि प्रगति की परिभाषा पश्चिम से उधार ले कर भला नहीं कर सकेगी। पश्चिम जैसा ही बनना भारत की नियति नहीं हो सकता । इस प्राचीनतम सभ्यता का विशाल लोकतांत्रिक कारवां पश्चिम से पुष्टि नहीं चाहता। गरिमा के साथ स्वावलंबन , स्वायत्त व्यवस्था और गुणवत्तापूर्ण जीवन ही उसका ध्येय हो सकता है। स्वदेशी से ही स्वराज सही अर्थों में स्थापित होगा।
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