Guru Purnima: बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा
Guru Purnima: आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा भारत में ‘व्यास-पूर्णिमा’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन गुरु का पूजन-वंदन करने की प्रथा है। गुरु की भारतीय परम्परा में बड़ा ऊँचा स्थान दिया गया है। गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीगुरु के चरण कमलों की वंदना करते हुए मानस में कहते हैं कि गुरु की चरण-धूलि सुरुचि, सुवास (सुगंध) और अनुराग से भरी हुई है। वह तो संजीवनी बूटी का सुंदर चरण है जो सभी भव रोगों का नाश करने वाला है :
बंदऊँ गुरुपद पदुम परागा। सुरुचि सुवास सरस अनुरागा ।। अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रूज परिवारू ।

गुरु की कृपा सभी कष्टों को दूर करती है। वह स्नेह के साथ जीवन में व्याप्त अंधकार को हटा कर मार्ग प्रशस्त करता है। गुरु के प्रति कृतज्ञ भाव को व्यक्त करने के लिए गुरु पूर्णिमा का अवसर एक निमित्त बनाता है। इस अवसर पर महर्षि व्यास का स्मरण प्रासंगिक होते हुए भी प्रायः विस्मृत रहता है। महर्षि पराशर तथा निषाद कन्या मत्स्यगंधा सत्यवती के पुत्र कृष्ण द्वैपायन भारतीय ज्ञान परम्परा के अधिष्ठाता कहे जा सकते हैं।
वे श्याम वर्ण के थे इसलिए कृष्ण कहे गए और यमुना नदी के द्वीप में पैदा होने से द्वैपायन कहा गया। व्यास का शाब्दिक अर्थ ‘विस्तार’ होता है और महर्षि वेद व्यास ने वेदों का विस्तार कर मंत्रों की प्रकृति को देखते हुए वेद संहिता के चार विभाग कर व्यवस्थित किया। बाद में पुराणों का सृजन किया। बादरायण इसलिए कहा गया कि यमुना नदी के जिस द्वीप में उनका जन्म हुआ था वहाँ बदरी (बेर) वृक्ष प्रचुर मात्रा में थे।
व्यास को विष्णु का अंशावतार भी कहा जाता है। यह भी रोचक है कि व्यास स्वयं भी महाभारत के घटनाक्रम में एक प्रमुख पात्र भी हैं। वस्तुतः वे पांडव वंश के प्रवर्तक हैं। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर उन्हीं के पुत्र हैं। महाभारत कथा में व्यास, भीष्म और कृष्ण अनेक अवसरों पर एक साथ मिलते हैं। परम्परा में व्यास को चिरजीवी यानी अजर अमर कहा गया है। तपस्वी, विद्वान और महाकवि व्यास की कीर्ति सचमुच अतुलनीय हैं। उन्होंने अनेकानेक कार्य किए। महाभारत के वर्णन के अनुसार जन्म लेते ही व्यास कुमार रूप हो गए थे । माता से अनुमति माँगी कि तपस्या करने के लिए प्रस्थान करना है। पर साथ में यह भी कहा कि जब भी वह याद करेंगी पहुँच जाऊँगा। इस वचन का जीवन भर उन्होंने पालन भी किया। बदरिकाश्रम उनकी तपस्थली रही।
विशाल महाभारत ग्रंथ और अट्ठारह पुराणों की रचना का श्रेय महर्षि व्यास को जाता है। इसीलिए उनको ‘ज्ञानमयप्रदीप’ कह कर सम्बोधित और समादृत किया जाता है। लोकप्रचलित जनश्रुति के अनुसार जब महाभारत युद्ध होने के साथ वर्ष बाद राजा परीक्षित के काल में एक दिन व्यास जी पहुँचे। परीक्षित ने महाभारत की घटनाओं का वर्णन सुनाने को कहा। तब 8800 श्लोकों की ‘जय संहिता’ सुनाई। उसके बाद उनके शिष्य ऋषि वैशम्पायन ने राजा जनमेजय को यह कथा 24000 श्लोकों में सुनाई और इसका नाम पड़ा ‘भारत संहिता’। आगे चल कर ऋषि वैशम्पायन के शिष्य ऋषि उग्रश्रवा ने शौनक आदि ऋषियों को नैमिषारण्य में सुनाई और यह बढ़ कर 100000 श्लोक वाली रचना ‘महाभारत’ कहलाई।
महाभारत इतिहास है और वह ‘पंचम वेद’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसमें प्रसिद्ध महाभारत संग्राम की ब्योरेवार विशद गाथा तो वर्णित है पर वही भर इसमें नहीं है। क्षेमेन्द्र जैसे महाकवि इसे ‘विष्णु-कथातीर्थ’ कह कर आदर देते हैं। इसके बारे में यह श्लोक बड़ा प्रसिद्ध है: धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् अर्थात् धर्म (कर्तव्य), अर्थ (भौतिक समृद्धि), काम (इच्छा-सुख) और मोक्ष (आध्यात्मिक पूर्णता) सब कुछ इसमें है। जो कुछ इसमें है वह अन्यत्र यानी और भी जगह है और जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं है । इसलिए जब इसे ज्ञान का विश्वकोश कहा जाता है तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है । महाभारत की कथाओं और प्रसंगों को लेकर संस्कृत समेत सभी भारतीय भाषाओं में प्रचुर मात्रा में काव्य, कथा और नाटक आदि सभी विधाओं में साहित्य रचना हुई है जिसका क्रम अभी भी चल रहा है।
उन्होंने ही वेद का चार भागों में विभाजन किया, पुराणों का प्रणयन किया और महाभारत रचा। श्रीमद्भगवद्गीता भी उन्हीं की रचना है। यह सब करने पर भी व्यास के मन में बेचैनी थी। उनको आत्मिक शांति नहीं मिल रही थी। इस विकलता की स्थिति में महर्षि नारद ने उनको सुझाव दिया कि हरिनाम कीर्तन करने से ही उन्हें शांति मिल सकेगी। तब व्यास ने अत्यंत रसपूर्ण महनीय हरिकथा श्रीमद्भागवत की रचना की जो बाद के अनेक कवियों के काव्य का आधार बनी। आज भी भागवत की कथा भक्त जनों को प्रमुदित करने वाली प्रमुख कथा है ।
व्यास को परम्परा में ‘आदि गुरु’ की पदवी मिली है जिसके लिए वे हर तरह से उपयुक्त हैं। ज्ञान के लौकिक और पारलौकिक सभी क्षेत्रों में उनकी समान गति थी। उनके पहले वेद की परम्परा थी जो दुरूह थी और साधारण जनों के लिए सुग्राह्य नहीं थी। व्यास द्वारा रचित पुराण पहले से उपलब्ध ज्ञान को समकालीन समय संदर्भ के अनुसार व्यवस्थित कर सर्वजनोपयोगी बनाते चलते हैं । ज्ञान का संप्रेषण और विस्तार करते हुए व्यावहारिक स्त्तर पर प्रतिष्ठित किया।
उसकी शैली संवादपरक रखी ताकि उस तक सबकी पहुँच आसान हो सके। पुराणों को पढ़ना और आत्मसात् करना सरल है। इनमें अमूर्त और जटिल समस्याओं को अनुभव की भाषा में रखा गया है जिससे समस्या की समझ और समाधान तक पहुँच आसान हो सके। उदाहरणों, दृष्टांतों और विंबों को लेकर कठिन पहेलियों को सुलझाते हुए महर्षि व्यास ज्ञान के ख़ज़ाने को उपलब्ध करा कर समाज का बड़ा उपकार किया। श्रीमद्भगवद्गीता इस सबका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
गुरु और व्यास की परम्परा आज भी प्रचलित है। बहुत से परम्परागत परिवारों में गुरु मुख होना अभी भी गृहस्थ जीवन का महत्वपूर्ण कार्य बना हुआ है। कथा कहने वाले व्यास कहे जाते हैं और उनका आसन व्यास गद्दी। आज कथा-वाचन व्यवसाय का भी रूप ले लिया है और अनेक तरह के लोग इसकी दौड़ में शामिल हैं। कथा-श्रवण करने वालों में अभी भी धर्म भावना है और दूर-दूर से कष्ट सह कर भी लोग कथा सुनने आते हैं।

वर्तमान युग में ज्ञान की ही महिमा है। प्रौद्योगिकी में आ रहे तेज़ी से बदलाव के साथ गुरु की संस्था के अच्छे बुरे तमाम विकल्प आने लगे हैं। गूगल गुरु और चैट जी पी टी जैसे कृत्रिम मेधा (एआई) वाले गुरु धमक रहे हैं पर वह नाकाफ़ी है। गुरु जी, उस्ताद और सर का महत्व अभी भी शेष है । गुरु से विद्यार्थी को जीवंत संस्पर्श मिलता है। उनके साथ सीखने, निर्देश पाने और पढ़ने के बीच मानसिक तृप्ति का आकर्षण जीवंत और अमूल्य है। भारत में प्राचीन काल से ही देव, दानव और मनुष्य सबके लिए गुरु- शिष्य की महान जोड़ियों की अनेक कथाएँ विख्यात हैं।
श्रीकृष्ण-सांदीपनि, श्रीराम- विश्वामित्र, क़ौरव और पांडव-द्रोणाचार्य, चंद्रगुप्त-चाणक्य और शिवाजी-समर्थ रामदास, विवेकानंद–रामकृष्ण परमहंस को कौन भूल सकेगा। समाज, संस्कृति और राजनीति हर क्षेत्र में गुरु की भूमिका क्रांतिकारी रही है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला सबका पूज्य गुरु महनीय होता है। निस्पृह और वितराग गुरु प्रकाश स्तम्भ की तरह मार्ग दर्शक, का कार्य करता है। एक सर्जक के रूप में गुरु प्रतिभा के उन्मेष और सर्जना को संभव करता हुआ शिष्य का रूपांतरण करता है। वह ज्ञान के दुर्गम यात्रापथ का निर्देश करता है।
चाहे जो भी हो ज्ञान के बिना कष्टों से छुटकारा नहीं मिल सकता । इसके लिए शिक्षा की संस्थाएँ खाड़ी हुईं। गुरुकुल बने जहां निर्विघ्न शिक्षा दी जा सके। आज वहाँ का परिवेश प्रदूषित हो रहा है। ज्ञान की दुनिया में अनुकरण और अनुसरण की नहीं आलोचक बुद्धि और सर्जनात्मक दृष्टि का मूल्य होता है और हमारी शिक्षा व्यवस्था इसमें पिछड़ रही है । सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक शक्तियों के प्रभाव शिक्षा को उसके उद्देश्य से भटका रहे हैं। आज शिक्षा केंद्र से बाहर की दुनिया गुरु शिष्य की भावनाओँ और प्रेरणाओँ को प्रदूषित कर रही हैं । अध्यापक परीक्षा-गुरु हो रहा है और वित्त की इच्छा प्रबल होती जा रही है और नैतिक मूल्य अप्रासंगिक। गुरु को भी समाज में अब पहले जैसा आदर नहीं मिलता। शिक्षा की गुणवत्ता घट रही है । निष्प्राण होती शिक्षा के लिए गुरु की संस्था को प्राणवान बनाना आवश्यक है। तभी सार्थक शिक्षा द्वारा विकसित भारत का लक्ष्य प्राप्त हो सकेगा।
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