Geeta Jayanti

Geeta Jayanti: सहज कर्म-पथ का आह्वान है भगवद्गीता: गिरीश्वर मिश्र

Geeta Jayanti: कालजयी श्रीमद्भगवद्गीता उस महाभारत का अंश है जिसे भारतीय चिंतन की परम्परा में इतिहास में परिगणित किया गया है। यह महान रचना इस अर्थ में विशिष्ट है कि इसके रचयिता महर्षि वेदव्यास स्वयं उन घटनाओं के साक्षी और भागीदार भी थे जिनका वर्णन उन्होंने अपनी रचना में किया था। आगे चल कर भारत की सभी मुख्य भाषाओं में यह अमर गाथा निरंतर गाई जाती रही और भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा द्वारा महाभारत से सामग्री को लेकर प्रचुर संख्या में उपन्यास, नाटक और काव्य रचे जाते रहे हैं। इसने संगीत और नृत्य को भी निरंतर प्रभावित किया है ।

वस्तुत: यह केवल एक सर्वसमावेशी औपचारिक शास्त्र ही नहीं रहा बल्कि लोक-जीवन में भी गहरे रच बस गया । महाभारत की महागाथा में धर्म की अवधारणा ही प्रमुख है। गीता का आरम्भ भी धर्म शब्द के साथ होता है। धर्म का तत्व देश, काल और पात्र के सापेक्ष होता है और गतिशील जीवन-पद्धति को इंगित करता है। स्वधर्म की बात आगे समझायी गई है। ईश्वर का अवतार धर्म को पहचानने और स्थापित करने के लिए होता है। धर्म को रीति और नीति से भिन्न समझना होगा। अपने से दुर्बल की सहायता करना ही परम धर्म है। इस दृष्टि से सामाजिक संदर्भ के सापेक्ष ही धर्म की समझ भी आकार लेती है। ऋग्वेद, उपनिषद और धर्मशास्त्र आदि सब का संज्ञान लेते हुए महाभारत रचा गया । भगवद्गीता महाभारत का हृदय सरीखा है ।

भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व में है पर उसके पहले वन पर्व में व्याध-गीता का भी एक आख्यान आता है। आश्चर्य यह कि दोनों हिंसा की पृथभूमि में हैं, एक कसाई के घर में तो दूसरी युद्ध-भूमि में। भौतिक (प्रकृति) और मानसिक चैतन्य (पुरुष) का भेद दोनों में ही दिखता है। प्रकृति का सत्य विविधताओं से भरा हुआ है । मनुष्य की कल्पनाशीलता उसे चर अचर अन्य सभी जीवों या पदार्थों से अलग करती है। वह अमरता की कल्पना कर सकता है। इसी क्रम में अर्थ की तलाश करते हुए चैतन्य या देही की अवधारणा प्रस्तुत हुई। मनुष्य से यह अपेक्षा है कि वह पाशविक वृत्ति से ऊपर उठ कर ऊर्ध्वमुखी हो। यही जीवन में व्याप्त हीनता और क्षुधा को दूर करने वाला है।

गीता की विचारधारा सदियों से देश-विदेश में मानवीय चिंतन को प्रभावित करती आ रही है। अब तक विश्व की विभिन्न भाषाओं में गीता के तीन हज़ार से अधिक अनुवाद हो चुके हैं। गीता की व्याख्या के लिए अनेक महत्वपूर्ण भाष्य शंकराचर्य,  रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, अभिनव गुप्तपादाचार्य, संत ध्यानेश्वर, तथा स्वामी रामसुख दास आदि अनेकानेक आचार्यों और संतों ने ही नहीं लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, संत बिनोबा भावे आदि अनेक राष्ट्रप्रेमी नेताओं ने भी रचे हैं ।

गीता की संगीतात्मकता, उसकी लयबद्धता और विचार की विशालता ने उसके अनुवाद और पुनराख्यान के लिए प्रेरित किया । कहा गया कि गीता को अच्छी तरह गाना और गुनगुनाना चाहिए – गीता सुगीता कर्तव्या । सारे शास्त्रों को विस्तार में पढ़ने की जगह गीता को हृदयंगम करना ही पर्याप्त है। पर गीता को पढ़ें तो लगता है कि वहाँ सीधी रेखा में बात आगे नहीं बढ़ती है। कुछ विचार गीता में कई अध्यायों में इतस्तत: बिखरे मिलते हैं, कुछ बार-बार अनेक स्थलों पर दुहराये गए हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो अन्यत्र वेद तथा उपनिषद आदि में विद्यमान हैं। यदि इसमें एक ही शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं तो एक ही अर्थ के लिए कई भिन्न शब्द भी प्रयुक्त मिलते हैं।

आत्मा, देही, तथा शरीर आदि शब्दों का प्रयोग इसी तरह का है। कृष्ण जीवन के अनेकानेक संदर्भों में आज भी प्रासंगिक बनी हुई है। संरचना की दृष्टि से यह भी विलक्षण है कि कृष्ण के विचार सीधे हम तक नहीं पहुचते। धृतराष्ट्र ने पूछा और संजय ने सुना कर बताया। अधिकारहीन पर अद्भुत दृष्टिसंपन्न संजय वक्ता हैं जो युद्ध को देख कर दृष्टिहीन परन्तु अधिकारसंपन्न धृतराष्ट्र को वर्णन सुनाते हैं और उन्होंने जो देख कर सुनाया वह हम सुनते पढ़ते हैं। कृष्ण स्रोत हैं पर संजय सूचना या संदेश के प्रस्तोता हैं। शायद धृतराष्ट्र और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण के वचनों को सुनते हैं पर अपने अपने ढंग से और कदाचित भिन्न भिन्न रूपों में। अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछते हैं। धृतराष्ट्र चुप रहते हैं। वे डरे सहमे हुए हैं, शायद मन ही मन कृष्ण के वचनों को सुन कर गुनते-आंकते हैं।

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गीता में उपस्थित विमर्श में श्रीकृष्ण विश्लेषण (सांख्य) और संश्लेषण (योग) दोनों पद्धतियों का उपयोग करते हैं। उन्होंने व्यावहारिक कर्म-योग, भावनात्मक भक्ति-योग और बौद्धिक ज्ञान-योग का प्रतिपादन किया है। गीता के पाँचवे अध्याय में श्रीकृष्ण शरीर को नौ द्वारों वाली एक पुरी बताते हैं। गीता द्वारा मानस का विस्तार और यथार्थ का बोध संभव होता है। कर्म का सिद्धांत यह बताता है कि आप वर्तमान परिस्थिति को तो नहीं नियंत्रित कर सकते किंतु उस परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया कैसे करें यह जरूर चुन सकते हैं। गीता का कर्मवाद यह भी स्पष्ट करता है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का स्वयं निर्माता भी है। इसका संदेश यही है कि आप स्वयं अपने जीवन के लिए उत्तरदायी हैं।

हमारे बस में मात्र यही है कि हम परिस्थिति के प्रति किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं। पर हम समाज के अंग हैं और सबसे अलग-थलग भी नहीं हैं। हम दूसरों के कर्म से भी प्रभावित होते हैं। इसलिए कई बार बीज कुछ होता है और फल उससे भिन्न कुछ अन्य प्रकार का। इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म पर ध्यान देने को कहते हैं न कि फल पर। कर्म का परिणाम जो भी हो पाँच चीज़ों पर निर्भर करता है – शरीर, मन, उपकरण, विधि तथा दैव (भाग्य)। मूर्ख ही ख़ुद को अकेले कारण मानता है। यदि हम ख़ुद को कर्मों के परिणामों से नहीं बाँधते तो कर्म भी हमको नहीं बाँधते। सुख, शक्ति और स्वर्ग की कामना से किया गया कर्म जब किया जाता है तो आँख फल पर टिकी होती है न कि कर्म पर। कर्म, विकर्म और अकर्म के बीच के अंतर को समझना कठिन है। बुद्धिमान लोग कर्म फल से बिना जुड़े निर्लिप्त हो कर काम करते हैं।

कर्तृत्व के अभिमान से मुक्त होने और फ़लेच्छा का त्याग करने पर कर्म अकर्म हो जाता है। कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त हो कर कर्म करना कर्मयोगी श्रेष्ठ बनाता है। सक्रिय होना कर्म है पर जब कर्म-परिणाम को बिना नियंत्रित करने की चेष्टा के कर्म करना कर्म-योग है। बिना किसी प्रत्याशा के कर्म के विचार को देख कर यह प्रश्न उठता है कि उस स्थिति में कर्म के लिए क्या प्रेरणा का तत्व होगा। वृक्ष और पशु अपने लिए खाद्य और सुरक्षा पाने के लिए सक्रिय होते हैं। एक मनुष्य ही है जो दूसरों के खाद्य और सुरक्षा के लिए कर्म कर सकता है। इसी दृष्टि को अपनाना धर्म है।

हमारा शरीर मरणधर्मा है और सुरक्षा चाहता है । वह सीमाएं भी बनाता है। किंतु इस शरीर में अमर आत्मा का वास है जिसे किसी किस्म की सुरक्षा या बन्धन की दरकार नहीं है। मरणधर्मा हाड़ मांस से लिपट कर यह आत्मा जीवन और मृत्यु का स्वाद बार-बार लेता है। अमरता और पुनर्जन्म के विचार के साथ श्री कृष्ण मानवीय जीवन के विमर्श का पूरा नक़्शा ही बदल देते हैं: शरीर का अंत अंत नहीं होता और न शरीर का आरम्भ आरम्भ होता है। क्षण-क्षण बदलती दुनिया जिस पर अधिकार जमाना संभव नहीं उसे बदले और अस्थायी चीजों में हम अवलोकन करते हैं, खोज करते हैं और गद्गद होते हैं। वस्तुत: हम एक महा आख्यान के हिस्से होते हैं, अतीत की कथा वर्तमान को और वर्तमान भविष्य को रचती चलती रहती है।

उन कथाओं को तो हम नहीं जानते पर उनमें भूमिका जरूर अदा करते हैं। जो कथा हम अनुभव करते हैं या याद करते हैं वह कोई अकेली कथा नहीं होती। हमारी जिंदगी दूसरी कथाओं में हमारी भूमिकाओं पर निर्भर करतो है। रोचक बात यह है कि कथा या भूमिका याद न भी हो तो भी हम उसके परिणामों से नहीं बच सकते । पुनर्जन्म यह भी बताता चलता है कि यह विश्व हमारे पहले भी था और हमारे बाद भी रहेगा। गीता व्यक्ति के मानसिक-आध्यात्मिक उन्नयन पर बल देती है। अस्तित्व का अर्थ और मूल्य ही गीता का प्रतिपाद्य है। कर्म मार्ग का प्रवर्तन ही उसका प्रमुख उद्देश्य है।

कर्म की गति गहन होती है। कर्म से मुक्ति संभव नहीं है। कर्म की गुणवत्ता उसे करने में नहीं बल्कि उसके पीछे निहित इच्छा के त्याग में है। त्याग इच्छाओं का अभाव है। गीता इच्छाओं से आसक्ति दूर करना चाहती है न कि कर्म से। लोक-संग्रह के लिए जीवन का ढर्रा बदलना होगा। बंधुत्व का भाव आवश्यक है। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म में निरत हो कर मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती है।

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