National Hindi Day-2025: भाषा का स्वराज: गिरीश्वर मिश्र
National Hindi Day-2025:”सरकार का राजभाषा विभाग हिंदी उद्धार के काम में लगा हुआ है पर 76 वर्ष बीतने पर भी प्रश्न उलझा ही है। अंग्रेजी के साथ प्रतिद्वंदिता में हिन्दी हीनता का पर्याय बनती गई: अंग्रेजी जानने वाला ही ज्ञानी और बाक़ी गंवार बन गए।“

National Hindi Day-2025: भाषा हमारी अभिव्यक्ति का न केवल सबसे समर्थ माध्यम है बल्कि संस्कृति के निर्माण, संरक्षण, संचार और अगली पीढ़ी तक उसका हस्तांतरण भी बहुत हद तक उसी पर टिका होता है, भाषा संस्कृति की वासस्थली जो ठहरी। ज्ञान के साथ भी भाषा का रिश्ता गहन और व्यापक है क्योंकि भाषा में ही ज्ञान संजोया जाता है । भाषा की बदौलत मनुष्य अपने देश-काल की सीमाओं से परे जा कर नया सृजन भी कर पाता है। वस्तुत: भाषा मनुष्य की एक विलक्षण रचना है, एक ऐसी कृति जो नश्वर मनुष्य के आविष्कार और अभ्यास पर टिकी हो कर भी अत्यंत शक्तिशाली है ।
दुनिया क्या है और उस दुनिया में हम क्या कुछ कर सकते हैं यह सब बहुत हद तक भाषा की ही देन है। भाषा के लेंस से हम अपनी दुनिया को देखते-समझते हैं। उसी से वस्तुओं को पहचानते हैं, पारस्परिक संवाद करते हैं, प्रार्थना करते हैं और प्यार-मुहब्बत का इज़हार करते हैं। भाषा के ही सहारे कुंठा-आक्रोश तथा हास-परिहास सहित विभिन्न भावनाओं को भी मूर्त आकार देते हैं।

वस्तुत: भाषा हमारे अस्तित्व का प्रमाण और साक्षी बन कर हमारी सत्ता का प्रसार तय करती है । पर भाषाओं की दुनिया बहुरंगी है। भारत की ही बात करें तो यहाँ भारोपीय (इंडो-यूरोपियन), द्रविड़, आस्ट्रिक और तिब्बती-चीनी भाषा परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। कुल मिला कर इनकी संख्या हज़ार से ज़्यादा पहुँचती है और इनमें ऐसी भाषाएँ भी हैं जो सिर्फ़ बोली जाती हैं और उनकी लिपि ही नहीं है । अपने संविधान में उल्लिखित बाईस भाषाओं में पंद्रह भाषाएँ भारोपीय और चार द्रविड़ परिवार से जुड़ी हैं। बोरो और मणिपुरी तिब्बती चीनी परिवार की भाषाएँ हैं और संथाली आस्ट्रिक परिवार की है। आर्य और द्रविड़ परिवार की भाषाओं की दो अलग श्रेणियाँ कई भाषावैज्ञानिकों को ठीक नहीं जँचती । वे भारतीय भाषाओं के बीच भाषिक स्तर पर काफ़ी निकटता पाते हैं जब की वे भिन्न भाषा परिवारों की हैं ।
उदाहरण के लिए इन सब में बोलने में पदक्रम कर्ता, कर्म और क्रिया से बना हुआ है।यह भी विलक्षण बात है कि सँथाली में संस्कृत की ही तरह तीन बचन होते । ऐसे ही मणिपुरी और हिंदी में भी लिंग-विधान में साम्य है। मणिपुरी में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्द भी मिलते हैं। बोरो तिब्बती-चीनी परिवार की भाषा तो है पर असमिया और बांग्ला से उसकी बड़ी निकटता है और उसने देवनागरी लिपि भी अपनाई है। दक्षिण की तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ जो द्रविड़ कही जाती हैं संस्कृत के बड़े निकट हैं। कुल मिला कर भारत को एक भाषा क्षेत्र के रूप में मानने के पक्ष में कई संकेत हैं।
भिन्न भाषा-परिवार की भाषाओं में साम्य संपर्क का परिणाम हो सकता है क्योंकि भाषाओं में आदान-प्रदान भी होता है। पर इससे भारतीय संस्कृति की मूल एकता का भी पता चलता है। विभिन्न भाषाओं के साहित्य में भी भारतीय संस्कृति की एकता झलकती है। उनका सादृश्य- विधान और बिंबों के प्रयोग में भी अनोखा साम्य है। कहावतें, मुहावरे और लोक साहित्य में भी भाषाई एकता के अनेक सूत्र मिलते हैं । कहना न होगा की अधिकांश भाषाओं का संस्कृत से निकट संबंध इस तरह के भाषिक साम्य का एक बड़ा कारण है।
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भाषा का संस्कृति और शिक्षा से गहन संबंध अंग्रेज़ों द्वारा उलट पलट दिया गया। अपने उपनिवेश के शासन को संचालित करने के लिए अंग्रेज़ों को कर्मचारियों को तैयार करना था । इस काम के लिए अंग्रेज़ी ही उनको सबसे उपयुक्त भाषा लगी । उन्होंने भारतीय भाषाओं को उखाड़ कर अंग्रेज़ी को रोप दिया । भारत को ‘इंडिया’ बना दिया और उसे गढ़ने लगे। धीरे-धीरे भारत, भारतीयता और भारत-भाव को प्रश्नांकित कराटे हुए गौड़ बना दिया गया। विचार और कर्म भाषा से अनुविद्ध होते हैं।
हमारे अस्तित्व की बनावट और बुनावट में अंग्रेजी जिस तरह पैठी उसके चलते अपने यथार्थ को हम न केवल उधार की कोटियों में रख कर देखने लगे बल्कि उसी के आईने में वह सब भी अपने में देखने लगे जो था भी नहीं। सांस्कृतिक विस्मरण की प्रक्रिया आधुनिक होने, विकसित होने की वैश्विक दौड़ की अनिवार्यता बन गई। सोचने-विचारने की प्रक्रिया ऐसे तितर-बितर हुई कि ज्ञान की गुणवत्ता प्रश्नांकित होती गई। इसमें यह भ्रम भी मददगार हुआ कि अंग्रेज़ी एक वैश्विक भाषा है।
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में संख्याबल के आधार पर चुन कर बाइस भाषाएँ उल्लिखित हैं जिनमें हिंदी को ‘राजभाषा’ घोषित किया गया है यानी वह राजकाज की भाषा है। सरकारी तौर पर 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी संवैधानिक तौर पर राजभाषा घोषित हुई और उसे अंग्रेजी जैसा बन जाने की सलाह दी गई। अंग्रेज़ी भाषा राजनैतिक-ऐतिहासिक कारणों से सहायक राज भाषा बनी पर वास्तव में उसकी भूमिका राज भाषा की रही। उसमें दक्षता शिक्षा, नौकरी और सरकारी कार्यालयों के लिए ज़रूरी बनी हुई है । स्वतंत्र भारत ने अंग्रेजों की शिक्षा नीति को लगभग ज्यों का त्यों स्वीकार किया और उसी के अनुसार अंग्रेज़ी के वर्चस्व को बरकरार रखा। भारतीय भाषाएँ हाशिए पर धकेली जाती रहीं ।

सरकार का राजभाषा विभाग हिंदी उद्धार के काम में लगा हुआ है पर 76 वर्ष बीतने पर भी प्रश्न उलझा ही है। अंग्रेजी के साथ प्रतिद्वंदिता में हिन्दी हीनता का पर्याय बनती गई: अंग्रेजी जानने वाला ही ज्ञानी और बाक़ी गंवार बन गए। यह दुर्योग ही है कि जो भाषा उपनिवेशवाद के खिलाफ खड़ी थी वह उपनिवेश ख़त्म होने के बाद बंदी बना ली गई। सरकारी काम-काज मुख्य रूप से अंग्रेज़ी में ही चलता रहा । देश की भाषाओं में न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में ज्ञानार्जन आदि की व्यवस्था न होने से आम जनता की कठिनाई बढ़ती रही । अब अंग्रेजी बोलना जानना श्रेष्ठता का ऐसा प्रतीक बन चुका है कि हममें से कई लोग अपनी भाषा का तिरस्कार कर हिन्दी को हिंगलिश बनाने में ही कल्याण देख रहे हैं। इस परिदृश्य में राजनीति की मुख्य भूमिका रही है।
इस सबके बावजूद संवाद, संपर्क और ज्ञान की भाषा के रूप हिंदी की भारत में व्यापक उपस्थिति है। कभी इन्डियन ओपिनियन में 1909 में लिखते हुए महात्मा गांधी ने यह कहा था कि सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह हिन्दी ही होगी । स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में हिन्दी देश की संपर्क भाषा बन गई। विद्यार्थी के रूप में बापू ने अंग्रेजी में पढाई को ख़ुद एक अतिरिक्त भार के रूप में महसूस किया था जो ज्ञानार्जन में रोड़े अटकाती है। वह ख़ुद अधिकांश लेखन मातृभाषा गुजराती में करते थे।
हिंदी का क्षेत्र हिमालय की तराई, नर्मदा, पंजाब,सिन्ध, गुजरात,बंगाल, छोटा नागपुर तक विस्तृत है। इसकी सीमाएं बांग्ला, ओडिया, तेलुगु, नेपाली, पंजाबी, गुजराती और सिन्धी से जुड़ती हैं। उल्लेखनीय है कि लचीली होने और व्यापक शब्द भण्डार के साथ जोड़ने की प्रवृत्ति के चलते राजा राममोहन राय, केशव चन्द्र सेन, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी आदि ने हिन्दी को अपना समर्थन दिया था। संस्कृत से निकली मराठी, बंगला, उडिया और गुजराती भाषाओं से हिन्दी का निकट रिश्ता है। हिन्दी क्षेत्र जनसंख्याबहुल होने से व्यापार के लिए अच्छा बाजार भी उपलब्ध करा देता है। हिन्दी फ़िल्में, संगीत पूरे भारत में प्रचलित हैं । भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या हिन्दीभाषी है, शेष में ज्यादातर लोग हिन्दी को समझते हैं। हिन्दी भाषा आज भारतीय जन अभिव्यक्ति का सबल माध्यम है। मध्यदेश की हिन्दी और उसकी बोलियों का प्रसार व्यापक है।
National Hindi Day-2025: हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को खोने का अर्थ सांस्कृतिक एकता, भारतीयता, भारतीय मानस, भारत की पहचान को भी खोना है। भारत की आत्मा भारत की भाषाओं और उनके साहित्य में बसती है। भारतीय चिंतन की धारा तिरुवल्लूर, नामदेव, शंकरदेव, तुलसीदास सबमें मिलती है। लोक-जीवन में सम्पर्क भाषा की भूमिका में हिन्दी काफ़ी पहले से रही है। आवश्यकता है कि हम औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलें और भारत को भारत की दृष्टि से समझें। बहुत दिनों के बाद भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में यह संकल्प किया गया कि प्रारम्भिक शिक्षा को मातृभाषा के माध्यम से ही दिया जाय । प्रावधान तो यह भी है कि ऊँची कक्षाओं में भी ऐसी ही व्यवस्था रहे।
भाषाओं के बीच परस्परपूरकता भी है और हिन्दी इस संपर्क भाषा की भूमिका निभा सकने में समर्थ है। यदि बापू ने राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र को गूंगा कहा था तो यही आशय था हिन्दी में संवाद सहज है। हिन्दी का विकास अंतर भाषा के रूप में हुआ था और अनेक अहिंदी भाषियों ने हिन्दी की इस शक्ति को पहचाना था। अंग्रेजी का मोह और हिंदी से असंतोष वैश्विकता के मकड़जाल में फँसने के कारण है जिसकी सीमाएं आए दिन प्रकट हो रही हैं। फ़्रांस, जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल, इसराइल, जापान, चीन और रूस जैसे छोटे बड़े देश अपनी-अपनी भाषा में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सफलतापूर्वक शिक्षा दे रहे हैं । इन सब देशों में अपनी भाषा के लिए गौरव है और भाषा को हर तरह से समृद्ध करने का निरंतर प्रयास भी हो रहा है।
यदि भारत में मातृभाषा (National Hindi Day-2025) ही स्कूल की भाषा रहे तो शिक्षा का औपचारिक परिवेश इस योग्यता का उपयोग करते हुए भारत को विकसित करने की दिशा में शिक्षा के उपयोग के कार्य को सुगम कर सकता है। शिक्षा की प्रक्रिया को सुदृढ़ करने के लिए भाषा की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। भारत का भाषाई संसार वैविध्यपूर्ण और समृद्ध है हमें इसका लाभ उठाना आवश्यक है। इस सत्य की उपेक्षा कर भाषाई उपनिवेश को बढ़ावा देने पर मानसिक ग़ुलामी ही बढ़ेगी ।
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